सांवरे घनश्याम तुम तो प्रेम के अवतार हो
फँस रही हूँ झन्झटो में तुम ही खेवनहार हो
चल रही आंधी भयानक भंवर में नइया पड़ी
थाम लो पतवार मोहन अब तो बेड़ा पार हो
हाथ में बंशी मुकुट सर पर गले में हार हो
आपका दर्शन मुझे इस छवि से बारम्बार हो
नग्न पद गज के रुदन पर दौड़ते आये प्रभु
देखना निष्फल न मेरे ऑंसुओं की धार हो
है यही अन्तिम विनय तुम से मेरी नंदलाल है
मै तुम्हारा दास हू तुम मेरे सरताज हो।
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मेरे नाथ का नाम दया निधि है वो दया तो करेगें कभी न कभी
दुख हारी हरी दुखिया जन के दुख कलेश हरेगें कभी न कभी
जिस अंग की शोभा सोहावन है जिस श्यामल रंग में मोहिनी है
उस रूप सुधा से सनेहियों के हम प्याले भरेगें कभी न कभी
जहाँ गीध निषाद का आदर है जहाँ व्याध््रा अजामिल का घर है
वही वेश बना के उसी घर में हम जा ठहरेगें कभी न कभी
करूणा निधि नाम सुनाया जिन्हें करुणामृत पान कराया जिन्हें
सरकार अदालत में है गवाह गुजरेगें सभी ये कभी न कभी
हम द्वार पे आपके आके पड़े मुद्दत से इसी जिद पर है अड़े
अध सिंधु तरे जो बड़े से बड़े तो ये बिन्दु तरेंगें कभी न कभी
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