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विश्वकर्मा खिन्न एवम्् श्रान्त उदास बैठे थे। देवर्षि नारद को देख प्रार्थना की कि वे उनका इस मुसीबत से उद्धार करे। देवर्षि ने आश्वासन दिया और वे इन्द्रके समीप गये और पूछा,‘ आप तो तीनों लोकों में घूमते हैं ऐसा विशाल और कलापूर्ण भवन आपने कहीं देखा है।’
‘मैने तो नहीं देखा ,’नारद जी बोल,े, हां महर्षि लोमेश जी दीर्घ जीवाी हैं उन्होने कभी देखा हो तो कह नहीं सकता।’
नारद जी ने लोमेश जी का स्मरण किया और लोमेश जी सिर पर एक चढ़ाई रखें आ पहुंचे। नारदजी के अन्तर्मन की जान कर मुस्कराये। नारद जी ने पूछा,‘ महर्षि यह आप सिर पर चठाई क्यों रखते हैं ?’
‘जीवन विनाशी है,’ महर्षि हाथ के कमंडल को झुलाते हुए बोले इस थोड़ी सी आयु के लिये झंझट कौन करे। यह चटार्ठ ही मुझे प्र्याप्त छाया देती है।’
‘थोड़ी सी आयु’ इन्द्र चैंके
‘और क्या ?देखो मेरे वक्ष के इतने रोम तो टूट चुके हैं।’ वक्ष पर रूप्ये बराबर रोमहीन स्थान था।
‘जिस दिन सब रोम टूट जायेंगे लोमेश मर जायेगा। एक ब्रह्मामरता है तो एक रोत टूट जाता हैउसके सम्मान में और ये ब्रह्मा तो आये दिन मरते ही रहते हैं।’
ब्रह्मा के एक दिन में चैदह इन्द्र बदल जाते हैं। ऐसे 360 दिन के वर्ष से सौ वर्ष की ब्रह्मा की मृत्यु पर महर्षि लामेश का एक रोम गिर जाता है और वे।
देवराज सिर पकड़ कर बैठ गये। उसी दिन उन्होने विश्वकर्मा का भवन निर्माण रोक देने की आज्ञा दे दी।
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