हमारी आंखों में प्रश्न पीछे उभरता है उनकी आंखों में ग्रीष्म की ज्वालाऐं अपना रूप लेने लगती हैं। यदि एक बार भी हमने ना में सिर हिला दिया तो क्रोध का सूर्य पूरी तपन के साथ हमें झुलसा देता है और हमारी छांह भी बचने के लिए आॅफिस की छाॅह देखने लगती है। लेकिन उनके मुखाग्नि की ज्वालाऐं हमारे हर बचने के स्थान तक पहुँच जाती हैं ।
फुंकार के थपेड़ों में सारी कोमल भावनाऐं जल जाती हैं। शरीर का समस्त जल ताप से मस्तिष्क में पहुँच जाता है और प्रारम्भ हो जाती है वर्षा ऋतु, । बादल गरजने के साथ साथ बरसने भी लगते हैं तूफानी हवाऐं उन के बालों केा बिखरा देती हैं। कपड़े अस्तव्यस्त हो जाते हैं
बिजली हमारे साथ साथ घर के बरतनों पर भी गिरती है। आंसुओं की बाढ़ से घर आप्लावित हो जाता है और मायके प्रस्थान की तैयारी शुरू हो जाती है। हम उन नदी नालों को संवारने के लिए चैक बुक पकड़ा देते हैं तो प्रारम्भ होती है शरद ऋतु।
हमारा शरीर सिहरन से भर उठता है। नायिका शंगार प्रारम्भ कर देती है क्योंकि उसे अपनी प्रिय सखी के साथ नये सेंडिल, पर्स, साड़ी, शाॅल लानी है। वर्षा के बाद धुला धुला उनका चेहरा शरत की चाँदनी सा झिलमिलाने लगता है, शीतल चाॅदनी छिटक उठती है और चेहरे पर मुस्कान खिल उठती है।
लेेिकन हमारे जीवन में शिशिर प्रारम्भ हो जाता है, सोच सोच कर ही कंपकंपी आने लगती है कि न जाने हमारी चैकबुक का क्या हुआ होगा?
हमारी धन की सारी गर्मी कड़कड़ाते नोटों में तब्दील होकर दुकानदार के हवाले हो जायेगी। रुपयों पर पड़ने वाला पाला हमें दुःख से काला कर देता है और मस्तिष्क की तंत्रियों को लुंठित कर देता है। न जाने कितने रुपये लुट जायेंगे यह सोच सोच कर हमारी हड्डी हड्डी काॅपने लगती है।
इधर हमारा हड्डी तंत्र बजता रहता है, उधर न जाने कितने दुकानदान चूना लगाकर अगले साल की तैयारी में जुट जायेंगे । उनके रुपयों का वृक्ष हराभरा बना रहे। हम गम को मोटा लिहाफ ओढ़कर सब भूलने में लग जाते हैं।
उसके बाद आता है पतझड़ जब चैकबुक सामने लुटी लुटी पड़ी होती है। उसकी एक एक टहनी पर से रुपये रूपी पत्ते झड़ चुके होते हैं।
हमारा चेहरा सूख जाता है। ठूॅठ से असहाय दैव दैव पुकार उठते हैं। एक क्षीण आशा के साथ आगामी माह में मिलने वाले वेतन का इंतजार करते हैं जिससे पास बुक में नवांकुर फूंटे, फिर व्क्ष हरा भरा हो आगामी पतझड़ तक।
षट्ऋतु पिछला भाग
फुंकार के थपेड़ों में सारी कोमल भावनाऐं जल जाती हैं। शरीर का समस्त जल ताप से मस्तिष्क में पहुँच जाता है और प्रारम्भ हो जाती है वर्षा ऋतु, । बादल गरजने के साथ साथ बरसने भी लगते हैं तूफानी हवाऐं उन के बालों केा बिखरा देती हैं। कपड़े अस्तव्यस्त हो जाते हैं
बिजली हमारे साथ साथ घर के बरतनों पर भी गिरती है। आंसुओं की बाढ़ से घर आप्लावित हो जाता है और मायके प्रस्थान की तैयारी शुरू हो जाती है। हम उन नदी नालों को संवारने के लिए चैक बुक पकड़ा देते हैं तो प्रारम्भ होती है शरद ऋतु।
हमारा शरीर सिहरन से भर उठता है। नायिका शंगार प्रारम्भ कर देती है क्योंकि उसे अपनी प्रिय सखी के साथ नये सेंडिल, पर्स, साड़ी, शाॅल लानी है। वर्षा के बाद धुला धुला उनका चेहरा शरत की चाँदनी सा झिलमिलाने लगता है, शीतल चाॅदनी छिटक उठती है और चेहरे पर मुस्कान खिल उठती है।
लेेिकन हमारे जीवन में शिशिर प्रारम्भ हो जाता है, सोच सोच कर ही कंपकंपी आने लगती है कि न जाने हमारी चैकबुक का क्या हुआ होगा?
हमारी धन की सारी गर्मी कड़कड़ाते नोटों में तब्दील होकर दुकानदार के हवाले हो जायेगी। रुपयों पर पड़ने वाला पाला हमें दुःख से काला कर देता है और मस्तिष्क की तंत्रियों को लुंठित कर देता है। न जाने कितने रुपये लुट जायेंगे यह सोच सोच कर हमारी हड्डी हड्डी काॅपने लगती है।
इधर हमारा हड्डी तंत्र बजता रहता है, उधर न जाने कितने दुकानदान चूना लगाकर अगले साल की तैयारी में जुट जायेंगे । उनके रुपयों का वृक्ष हराभरा बना रहे। हम गम को मोटा लिहाफ ओढ़कर सब भूलने में लग जाते हैं।
उसके बाद आता है पतझड़ जब चैकबुक सामने लुटी लुटी पड़ी होती है। उसकी एक एक टहनी पर से रुपये रूपी पत्ते झड़ चुके होते हैं।
हमारा चेहरा सूख जाता है। ठूॅठ से असहाय दैव दैव पुकार उठते हैं। एक क्षीण आशा के साथ आगामी माह में मिलने वाले वेतन का इंतजार करते हैं जिससे पास बुक में नवांकुर फूंटे, फिर व्क्ष हरा भरा हो आगामी पतझड़ तक।
षट्ऋतु पिछला भाग
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