Wednesday, 2 December 2015

एक चिराग उन्हें भी मिला...

बचपन में अलाउद्वीन के चिराग के विषय में पढ़ा था। उससे जितना अधिक प्रभावित जब हुआ था उतना ही अब तक भी था। भगवान ने किस्मत मध्यम श्रेणी के गृहस्थ की दी है पर मन करोड़पति जैसा दिया।


हरदम आसमान की बुलंद ऊँचाईयों को छूने में लगा रहता, इन्हीं मन की बुलंदियों ने दिल में एक इच्छा पैदा की  कि काश मैं भी लखपति ,करोड़पति होता तो सब दिल की तमन्नाऐं निकाल लेता। नवजवानी का जोश, समाज को बदल डालने की तमन्ना लिये काॅलेज से निकले। पर पापी पेट भरे तो बाकी की खुराफातें सूझें।



नौकरी के लिये हाथ पैर मारे पर बिना सिफारिश कहीं नौकरी नहीं मिली। कहीं खाली जगह देखी पहुंचे तो पाया  उस जगह तो फर्म का आदमी ही परमानेंट हो गया, वाॅट तो परमानैंट करने के लिये निकालनी ही पड़ती हैं। कहीं पर किसी मंत्री का भतीजा लग गया तो कहीं कमिश्नर का भांजा । इन सब चक्करों में पास की गांठ और हलकी हो गई। अब लखपति बनने के हमारे पास तीन ही उपाया थे।


पहला तो यह कि शायद कोई हमारा लखपति नाना, चाचा, मामा मर जाये और वसीयत में सब हमारे नाम कर जाये, एकाएक फिल्मों की तरह वकील फाइल लेकर पहुंच जाए कि आपके फलां फलां रिश्तेदार मरने से पहले आपको सब कुछ दे गये ,पर ऐसी किस्मत कहां? कोई उम्मीद नहीं थी। क्योंकि हमारी सात पीढि़यों में कोई लखपति था ही नहीं और था भी तो पहले से ही लाइन डोरी हकदार है।



दूसरी तरीका था कोई लाटरी खुल जाये हमारे नाम तो हम रातोंरात लखपति बन जायें। इसके लिये कोशिश भी की बहुत सी जमा पूँजी इसके चक्कर में फूंक दी पर लाख दो लाख तो दर किनार कभी सौ पचास भी भूले भटके नहीं मिले।


तीसरा उपाय था कहीं से अलाउद्वीन का चिराग हाथ लग जाना। अब इसके लिये हमने भगवान से प्रार्थना शुरू की ऊपर वाले तू अपना हाथ हमारे ऊपर भी फेर दे, हमारे घर का छप्पर फाड़ दे बस इतना ही फाड़ना कि हम उसे ठीक करा सकें, बड़ा लैम्प न सही छोटा मिट्टी का दिया दे दे जिसमें जिन्न न हो जिन्न का बच्चा ही बैठा हो। हाँ इधर हमने अपने घर के छप्पर की मजबूती को टटोलते हुए छत पर टार्च की रोशनी फेकी ,उधर कमरे में जोर का धमाका हुआ और साथ ही आवाज आई ,‘मेरे आका वन्दे को कैसे याद किया?’






‘पर आका इतनी जरा सी जगह को आलीशान महल बना दूँ ?’आश्चर्य से कहा, ‘ना परवरदिगार ना, यह तो मेंरे नक्शे की एक कोठरी मात्र है।’


बडा आया इंजीनियर कहीं का, बड़बड़ाते हुए उससे कहा, ‘यह सब कुछ मैं नहीं जानता तुम इसे ही ठीक कर दो और जाओ।’ यह कहकर मैंने टार्च बंद की माँ से कहा, कुछ भी नहीं है ठीक हो जायेगा शायद भूकम्प है और चुपचाप भीड़ में शामिल हो कुछ देर तमाशा देखा फिर खिसक लिया, इधर उधर घूम कर तीन घंटे बाद वापस आया तो देखता हूँ सारे पड़ोसी एकत्रित हैं माँ बेहोश पड़ी है, महान बिलकुल बदल गया था जैसे छोटा सा राजमहल हो। डाॅक्टर भी बैठा था साथ ही अखबार वाले, फोटोग्राफर और सबके ऊपर मकान मालिक सब मौजूद थे।


डाॅक्टर कह रहा था सदमा बैठ गया है हालात पहले जैसे नहीं हुए तो पागल हो सकती है। बड़ी मुश्किल से भीड़ खिसकाई। माँ को जैसे जैसे होश आया उन्हें कुछ समझा पाता कि खुद के बेहोश होने के आसार नजर आने लगे। मकानमालिक ने नगर निगम, आवास विकास, भ्रष्टााचार निरोधक, इन्कम टैक्स अफसर आदि के साथ प्रवेश किया।



सर्वप्रथम मकानमालिक ने फरमाया कि बिना उनकी आज्ञा के रद्दोबदल क्यों करवाई आवास विकास वाले बोले, क्या आपको मालुम नहीं है कि बिना आज्ञा नक्शा पास कराये आप कुछ भी नहीं बना सकते। हाउस टैक्स वाले बोले, अब दिखाइये क्या क्या बनवाया है? कितना पैसा लगाया है। भ्रष्टाचार वाले बोले कि यह पैसा आया कहां से ? और इन्कमटैक्स वाले बोले, कोई और काम बेनामी चल रहा है क्या ? या डकैती डाल ली।
एक चिराग उन्हें भी मिला भाग 2

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