जी हां मेरी बीबी बहुत मितव्ययी हैं।
यह उसकी एक आदत बन गयी है कि वह किसी भी चीज को बेकार नहीं जाने देती है। आप कहेगे यह तो एक अच्छी बात है कि ये आजकल के फैशन रस्त खर्चीले युग में घर के खर्च और आदमनी का इतना ध्यान रखती है। घबरायें नही हम भी तो उनकी प्रशंसा ही कर रहे हैं। वास्तव में जब तक बहुत जरूरी नहीं हो जाय कुछ चीज बेकार खरीदती भी नहीं हैं।
बतौर कुछ नमूने आपके सामने पेश कर रहा हूँ। जैसे खाना ज्यादा बन जायेगा। जो अकिधतर बनता ही है तो खुद ही उसे खालेंगी। साथ ही कहेंगी, बेकार फेकने से तो अच्छा है पेट में ही पड़ जाय। अगर तब भी बच जाय तो उसे नये ढंग से पेश किया जाता है, उस पर धौंस यह कि खाना ही पड़ेगा चाहे कैसा भी बना हो ?
उनकी मितव्ययता उस समय कुछ ज्यादा ही जोर पर होती है जब मेरे रिश्तेदार आते हैं। उन दिनों घर का सब अच्छा सामान आलमारियों में बंद हो जायेगा और टूटे कप तश्तरी आदि निकल आयेगें । असली घी पर ब्लैक हो जायेगा। हां, यह अलग बात है
कि अगर उनका भाई या मायके की तरफ का कोई आ जाय तब इनकी अमीरी देखिए, अच्छे-अच्छे लखपतियों के घर का खाना लजा जायेगा। उन दिनों पत्रिकाओं से विशेष अच्छी-अच्छी व्यंजन विधियां निकालती हैं, और जितने दिन भी कोई रहता है सिर में किसी के दर्द तक नहीं होता है।
अगर उनकी माँ किसी रंग का ब्लाउज देती है तो वह बेकार न जाये इसलिये उससे मैच करती साड़ी आना आवश्यक है, फिर खाली साड़ी क्या अच्छी लगेगी जब तक उससे मैच करती लिपिस्टिक ,चूड़ी ,चप्पल और साया न हो। एक बार तो हम उनकी वस्तुओं के बेकार न जाने न देने वाली बात पर दंग रह गये। क्या तरकीब आजमायी है।
उस दिन हम आराम से कुर्सी हिलाते हुए कविता के बनाने में लगे हुए थे कि बड़े ही प्यार से अकार बोली, ‘क्या बेकार में बैठ बैठे कुर्सी तोड़ रहे हो, जरा बाजार चलो न!’ हमने पूछा, ‘क्यों बाजार से क्या लाना है ?’
तो ठुमुक कर बोली, मेरी वो नीली वाली साड़ी है न वह फट गयी है ,पर उसमें लगी फाल साबुत है । सोच रही हूँ फाल बेकार जायेगा, इसलिए एक दूसरी नीली साड़ी ले डालूँ काम आ जायेगी।’ है न जबरदस्त मितव्ययता।
बाजार में एक से एक सुन्दर पेन्टिग की साडि़यां मिल रही थी। अभी वह दुकान पर देख ही रही थी कि उनकी एक सहेली को भी तब ही आना था उसने उन्हे बताया कि घर में साड़ी क्यों नहीं पेन्ट कर लेती बड़ा ही आसान है। ये दुकानदार तो लूटते हैं घर में बहुत ही सस्ंती रंग जाती है। अब क्या था ,बस उन्हेें धुन चढ़ गयी तभी बाजार जाकर रंग ब्रुश, आॅयल वगैरह लाया गया।
दुकानदार तो बीस पच्चीस रुपया ही ज्यादा लेता। यहाँ जेब की अच्छी सफाई हो गयी कम से कम पांच सौ का तो यही सामान, साड़ी का कपड़ा अलग और अब जो रंग साड़ी पेन्ट करने से बचेंगे वे बेकार नहीं जाये उनका उपयोग भी हम खूब अच्छी तरह से जानते हैं फिर और कपड़े लाये जायेगे, और पेन्ट अच्छा नहीं हुआ तब ?
ऐसे ही विभिन्न पत्रिकाओं में हर तरह की वस्तु घर में बनाने की विधियाँ पड़ेंगी। क्यों दुकानदार तो लूटते है इसलिए वह सब घर में ही बनेगी। अब आप जानते ही है बिना सामन के तो तैयार हो नहीं आयेगा बस सब सामान लाया जायेगा और बनेगा क्या ज्यादा से ज्यादा एक प्लेट सब्जी या एक केक ।
एक बार कपड़ा धोने का साबुन आया और आया उसके साथ एक इंचीटेप, अब उसका किया क्या जये ? घर में मशीन थी नही, जो उसका उपयोग हो सके। पर उसका उपयोग तो निकाल लिया गया। छोटी बहिन के जन्म दिन पर उसमें कैची सुई डोरा कपड़ा आदि रखकर भेंट दे दिया गया।
पर उस इंचीटेप को दुबारा भी सोप ही के साथ घर में आना था। वे हमारी सिर पर चढ़ गयीं कि मशीन मंगानी ही पड़ी। अब उससे हमारे, पजामा सिलते हैं। भूल चूक लेनी देनी हैं। मतलब कभी ससुर साहब भी उसमें समा जाये और कभी छोटे भाई। तो भई यह कभी ससुर को चली जाती है तो कभी छोटे भाई को। कभी पजामा जमीन पर झाडू लगाता है। तो कभी वह मिनी पाजामा रह जाता है।
बाजार जाते समय उन्हें चप्पलों का जूतों का बहुत ख्याल रहता है। वे बेकार में नहीं घिसे इसलिए हमसे अनुरोघ किया जाता है कि टैक्सी कर लें । साथ ही समय का भी उन्हें बहुत ख्याल रहता है, वो जल्दी जल्दी बोलती हैं चाहे दूसरा सुने या न सुने ,रुकने पर समय बेकार जायेगा न ,और उनकी बात समझी न जाये यह तो उन्हें गवारा है ही नहीं।
अब मैं जल्दी से लिखना समाप्त करता हूँ। डर है कहीं इधर उधर से आकर देख न लें और यह कहकर फाड़ न दे कि क्यों बेकार कलम घिस रहे हो। टिकट के पैसे भी बेकार जायेंगे। क्योंकि उनके लिए हमारा सब लिखना बेकार ही तो है ,और उसे बचेकर रद्दी के पेैसे वसूल करती हैं।
इसमें गलती किसी की नहीं है
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