Wednesday, 20 January 2016

बचपन की सांस्कृतिक यात्रा भाग 6

मैने पहले भी लिखा है कि हमारा घर कुछ ऐसे स्थान पर था जहां से हर मेला तमाशा जुलूस शोभायात्रा जरूर निकलती या आस पास ही खेली जाती थी। नरसिंह लीला वैषाख त्रयोदषी की रात को प्रारम्भ होती और चतुर्दषी की भोर को समाप्त होती। हमारे घर के पास ही है सतघडा वहां एक बडा तालाब कहते है उसके अंदर सात बडे घडो मे भर धन डूबा हुआ है मथुरा मे कई बडे बडे तालाब है उनके चारो ओर सीढीयां और पत्थर की इमारत बनी हुईं हैं|


यहां कई बार गहराई पाने की कोशीश की गई बाद मे उन पर बडी जाली लगा दी गई। उसके बाहर ही बडा सा चबूतरा था वहीं नरसिंह भगवान का तख्त सजता पहले नरसिंह भगवान की शोभायात्रा निकलती बडे़ बडे़ झांझ झप की टंकार के बीच सिंह का विशालकाय मुखौटा लगाये रंग विरंगी गोटे लगी फ्रिल की पोशाक ढीला पाजामा हाथ मे मोटे मोटे कडे़ उगलियो मे बडी बडी अंगूठियां उगलियो में बध नखा भयंकर रूप और तेज झमाझम युद्व का सा नृत्य स्वरूप बार बार उतरता घूम घूमके दाव पेच दिखाता और सिंहासन पर बैठ जाता यात्रा चल पड़ती


पीछे खडे दो व्यक्ति तेजी पखा झलते क्योकि मुखौटा करीब 30 सेर का होता था चंदन की लकडी का बना मुखौटा 40 हाथ की घोती से बंधा रहता अप्रैल माह गरमी का प्रारम्भ होजाता था चारो ओर रोषनी इसिलिये स्वरूप पर तेजी से पंखा झला जाता बडा रोमांचित करती थी वह लीला स्वरूप दोना घुटनो पर हाथ रख इधर उधर तेजी से झूमता।  अन्य स्वरूप निकलते वे थे योगिनी षिव शत्रुहन ब्रहमा आदि के। सतघडा शोभायात्रा पहुँचती हमसब वहां पहुच जाते और स्टेज पर बिछे चादर पर हमारे बैठने का स्थान था सामने मकान के बडे चबूतरे पर  सब लीला खेली जाती ।सबसे पहले शांत सौम्य बृहमा जी का स्वरूप आता पूरी गली मे घूमता हाथ से सबको रूक रूक कर आषीर्वाद देता फिर हिरणाक्षय का वध करने बराह आते लवणा सुर आता हा हा करते शत्रुधन और लवणासुर मं युद्व होता योगिनी और लांगुरा का नृत्य होता षिव महिषासुर का वध करते इस प्रकार बहुत देर तक लीला चलती रहती शायद ही पूरी लीला देखी तो हां सुबह मां के साथ जाकर नरसिंह की आरती मं भाग लिया था तब ही वह लीला देखी जब नरसिंह जाधपर लेटे हिरणयकष्यप का पेट फाडने का अभिनय करते साथ ही जयकारे के साथ आरम्भ होता जोर जोर से झाप झाओ का नगडिया का बजना झमाक झाझाडका आयी देवी ताडका


       माँ पतिंग, माँ पतिंग       झै झै  नरसिंह
       रौद्ररस में बाले जाने बाले ये बोल बातावरण में जोष सा भर देते थे। हम डर से माँ का पल्लू पकडकर उनसे चिपक जाते उनके पीछे से झाकते थे। नर सिंह का बड़ा विषाल शेर मुखी चेहरा ही हमे डराने के लिये काफी था लेकिन उनका झूम झूम कर हुंकार लेना हमारी धड़कनो को बढ़ा देता था। जेर जोर से धमधम सी करते पांव पटखते घूमते और फिर खुले स्थान पर तेजी से घूम घूम कर युद्व नाचते घूमते वो भीड़ मे घुस जाते तो जैसे भीड़ फट जाती वे जब मुद्राऐ बनाते बच्चे कसकर बड़ो को पकड़ लेते


 चैत्र नवमी को वैसे तो राम जनम मनाया जाता पर हमारे लिये मुख्य आकर्षण होता दुर्वासा का मंदिर। साल में एक दिन दुर्वासा मंदिर पर मेला लगता और उस दिन उनकी पूजा करना अनिवार्य सा था दुर्वासा का मंदिर यमुना पार करीब एक मील पगडंडियों पार करके ऊॅचाई पर सीढियां चढकर बना था छोटा सा मंदिर था शायद पूरे वर्ष  वहां शयद ही कोई जाता था पर उस दिन वहां भी जंगल में मंगल हो जाता। जैसाकि अन्य अवसरों पर होता था 


चाचा ताऊ के परिवार स्वामी घाट से नाव मे बैठते और हम सती घाट से करीब करीब साथ साथ पार पहुँचते उन दिनो छोटी छोटी लाल बेरी और कतारे मिलने शुरू जो जाते थे वे हमारे रास्ते के साथी होते और चाची ताई के बच्चे आपस मे छीनने झपटने बोलते और हंसते खिलखिलाते भागते दौडते एक एक झाडी मे घुसते मंदिर तक पहुचते। मंदिर जाने का मुख्य कारण नाव मे होते हुए खंतेा मे एक तरह से पिंकनिक मनाना।



       सूपर्णखां की नाक कटना देखना हमे बहुत प्रिय था घाघरा चोली और चमकदार दुपटटा पहनकर सूपर्णखां पूरे मैदान का भटक भटक कर चक्कर लगाती राम लक्ष्मण और सीता भी वन के कपडों मे घूमते फिर प्रारम्भ होता सूपर्ण खा और राम लक्ष्मण संवाद कभी गाने मे कभी वाक्यो मे और जब लक्ष्मण नाक काटते कटर नाक लेकर सूपर्ण खां चक्कर लगाती बडा सुखद क्षण होता था हू हू करती लाल लाल कटरी नाक कभी छिपाती कभी दिखाती।



       ताडका वध की लीला भी  असकुंडा बाजार मे होती थी। वह स्थान भी हमारे घर से नजदीक ही था एक किनारे पर ताडका की विषाल पुतला खडा किया जाता राम और लक्ष्मण हाथी पर आते या घोडो पर आते फिर ताडका बनी चरित्र छम छम करते भयनक मुखौटा लगाये बडी सी जीभ निकालकर युद्व का अभिनय करती। सभी आसुरी चरित्रो की पोषाक काले कपडे पर चैड़ा गोटा लगाकर बनाइ्र हुई होती थी और राम लक्ष्मण की सुनहली पीली। झम झम झम झम युद्व होता ताडका बडी तेजी से घूमती लपकती और अंत मे राम का तीर लगता वह जमीन मे छटपटाती और उधर पुतले मे आग लगा दी जाती। पुतला भी बडा भयानक बनाया जाता था चेहरा कम से कम पांच फुट लम्बा चैडा होता चैडी


चैडी नाक उसमे नथ कानो मे थाल जितने बडे बडे गोल कुंडने बडी बडी आखों। हंसता हुआ चेहरा जिसमे तिकोने कागज के दात बनाये जाते। फिर विजय जुलुस निकलता।

बचपन की सांस्कृतिक यात्रा 

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