अध्यक्षा
की
जीप
में
से
7-8 महिलाएँ उतरीं।
अध्यक्षा
ने
सह
सचिव
से
कहा’
सबके
पर्चे
बनवा
दो’ फिर
दो
सदस्याएँ
जिनके
हाथ
में
पर्चिया
थीं
उनसे
बोली,‘
अब
तक
कितने
हो
गये।’
‘ इन्हें
मिलाकर
करीब
110 मरीज देख
लिये
15 मरीज आपरेषन
के
लिये
छाँटे
गये
है।
’
अस्पताल
की
गाड़ी
मरीजों
को
आपरेशन
के
लिये
ले
गई।
दूसरे
दिन
सभी
मरीजों
को
चाय नाश्ता फल
वगैरह
सभी
सदस्यों
ने
बाँटे।
डाक्टर्स
को
धन्यवाद
दिया
गया
तीसरे
दिन
फिर
अध्यक्षा
की
गाड़ी
अस्पताल
पहँची।
मुहल्ले
से
एकत्रित
किये
गये,
मरीजों
को
लेकर
जीप
चली
गई।
अंत
में
एक
मरीज
खुद
अध्यक्षा
के
घर
पर
उतरी।
वह
उनकी
सास
थी, धीरे
धीरे
चलती
मरीज
अपने
छोटे
से
कमरे
में
पहूँची
मिले
कंबल
को
तकिये
के
पास
रखा
और
लेटी
ही
थी
कि
अध्यक्षा
आई
मां
जी
आपका
आपरेषन
हो
गया
है
और
अब
साफ
दिखेगा
अब
ध्यान
रखियेगा
रोटी
वगैरह
में
बाल
न
दिखे।’
फोन पर सफलता पूर्वक नेत्र षिविर हो जाने की अखबारों को बता रही थीं। असली सेवा
निकलते करते
निर्मला
सड़क
पर
पड़े
कचरे
को
देखती...
उसका
दिमाग
भन्ना
जाता
आखिर
यह
क्या
हो
रहा
हैं
हम
स्वयं
अपनी
सहायता
करे
तो
क्षेत्र
साफ
हो
जायेगा
अपने
अपने
घरों
के
बाहर
ही
सफाई
करें
तो
सड़क
साफ
हो
जायेंगी।
जब
बर्दाष्त
से
बाहर
हो
गया
तो
स्वयं
सड़क
पर
झाडू
लेकर
खड़ी
हो
गई
वह
करेगी
तो
मोहल्ले
वाले
आ
जायेंगे
एक
एक
करके
कई
घरों
को
खटाखटाया। अखबारों
में
खबर
की...
निकल
कर
मोहल्ले
वाले
उसे
सड़क
देखते
रहे
जरा
सी
झाडू
लगाते
ही
उसके
हाथ
दुःखने
लगे
सालों
से
घर
में
ही
झाडू
काम
वाली
बाई
लगा
रही
थी।
रूककर
खड़ी
होकर
उसने
भाषण
षुरू
किया।
‘कहाँ
तक
हम
इंतजार
करें
बताइये
अपने
अपने
घरों
का
कूड़ा
तो
साफ
कर
सकते
है
अपने
घर
का
सामने
का
कूड़ा
उठाइये
अपने
बच्चों
का
बचपन
बचाइये...’
तभी
कुछ
अखबार
वाले
आ
गये।
फोटोग्राफर
देखकर
एकदम
सब
महिला
पुरूष
आ
गये,
’ झाडू
तो
है
नहीं
अभी
लगती
है’’।
निर्मला
ने
सामने
की
दुकान
से
पच्चीस
झाडू
मंगाई
एक
एक
झाडू
लोगों
ने
पकड़ी।
सड़क
पर
झाडू
लगाते
हुए
फोटो
खिंचवाई
।
जैसे
ही
अखबर
वाले
गये
सब
झाडू
ले
लेकर
अंदर
घुस
गये।
वाह।
सुवह
सुवह
फोकट
में
झाडू
मिल
गई।
निर्मला
ठगी
सी
कूड़ा
हाथ
में
लिये
खड़ी
थी।
और
तमाषा
खत्म
हो
गया
तृप्ति
ने
इधर-उधन
देखा
और
चैराहा
पार
किया
एक
तरफ
सड़क
पर
गड्ढा
था
।
वह
बचकर
जरा
सा
बीच
की
तरफ
आई
ही
थी
कि
उसे
गले
पर
जोर
का
हाथ
पड़ा
महसूस
हुआ
तुरंत
ही
उसका
हाथ
भी
उसी
तेजी
से
जंजीर
पर
पड़ा।
और
कसकर
उसने
जंजीर
पकड़
ली
साथ
ही
तेजी
से
एक
तरफ
हटी
तो
पल्सर,
सवार
का
साथी
कुछ
हडबड़ाया
पर
चलाने
वाला
तेजी
से
भाग
गया।
जंजीर
टूट
गयी लेकिन
तृप्ति
के
हाथ
हीं
में
आ
गई,
पल्सर
सवार
खींच
नहीं
पाया।
हकबकाई
तृप्ति
पल्सर
सवार
की
ओर
देख
रही
थी
के
पीछे
वाले
साथी
ने
पलटकर
घूर
कर
देखा।
उसे
उम्मीद
नहीं
थी
कि
उसका
प्रयत्न
असफल
जायेगा
।
पल्सर
चलाने
वाला
भगाता
था
और
पीछे
बैठा
एक
हाथ
मारता
था।
पल्सर
सवार
के
क्रोध
को
देख
रही
तृप्ति
ने
अपनी
जंजीर
संभली
।
’क्या
हुआ
क्या
हुआ
? ’ करते
आस
पास
के
लोग
जुट
गय।
तृप्ति
के
चारों
ओर
एक
मजमा
जुड़
गया।
चेन
खिच
गई
चेन’
का
षोर
उठा............
अरे ले गये चेन -कितनी भारी थी -बिना पहने तो चैन है नहीं
तृप्ति
ने
खिंची
चेन
को
हाथ
में
लिया
इतने
जोर
से
खींचा
था
कि
उसका
कंदा
खिच
गया
था
साथ
ही
पता
नहीं
अंगूठे
उँगली
में
कुछ
ब्लेड
लगा
था
कि
वह
कट
गई
थी
गले
मं
खरोंचे
आ
गई
थी
पर
उस
समय
वह
अपनी
चेन
को
देख
रही
थी
छोटा
टुकड़ा
उसके
अंदर बड़ा
उसके
हाथ
में।
’ठीक
तो
है’
आप
खिच
गई
चेन...................................’’
’नहीं
बच
गई’
तृप्ति
ने
समेट
कर
हाथ
में
रखी.............................’’
’अरे
अच्छी
खासी
लंबी
है।....
बच
गई............................................’’
’बच
गई
बच
गई।......का शोर उठा.................................................’’
तृप्ति आगे
बढ़ने
लगी।
उसे
डर
लगा
कोई
भीड़
में
पर्स
न
खींच
ले।
भीड़
हटने
लगी।
उसे
आवाजे’
सुनाई
दी’,‘
चलो
चलो
कुछ
नहीं
हुआ
चलो’
एक
उत्त्जना,
एक
चर्चा
का
विषय...............आगे
नहीं
बढ़
सका।
भीड़
का
चेहरे
निराष
था’
चलो
चलो
तमाशा या
खत्म
हुआ।घर
खर्च
चौदह साल
की
बिदिंया
चाचा
आये
है
सुनकर
ही
निहाल
हो
जाती
चारों
छोटे
बच्चे
भी
चाचा
आते
तो
जैसे
घर
में
त्यौहार
सा
हो
जाता
मा
उस
दिन
दूध
मे
चावल
डाल
कर
पकाती
एक
सब्जी
भी
बनती
दाल
भी
पकती
शाम
को
भी
सब्जी
पकती
नही
तो
कभी
प्याज
से
रोटी
मिलती
थी
या
कभी
नमक
से
कभी
काम
से
लौटी
बतासो
को
सब्जी
कही
से
मिल
जाती
तो
सब्जी
से
रोटी
मिलती
थी
कभी
कभी
चाचा
मिठाई
भी
लाते
कितनी
बार
बिदिंया
के
लिये
फ्राक
भी
लाये
थे
जब
भी
आते
घर
में
नाज
बगैरह
डलवा
जाते
बीमार
पिता
के
लिये
दवाई
लाकर
रख
जाते
भौजी
चिंता
मतकर
भाई
ठीक
हो
जायेगा
वही
चाचा
बिंदिया
को
अंधेरे
में
मुंह
बंद
कर
झोपड़ी
से
बाहर
सुनसान
में
खींच
ले
गया
उसी
चाचा
को
देखकर
बिंदिया
जैसे
डर
से
का
प
उठी
उसे
लगता
वह
मर
रही
है
मा
बाप
को
पता
चला
तो
बिंदिया
का
मुंह
बंद
कर
दिया
चुप
रह
मरजा
रोइयो
मत
कोई
से
कछु
मत
कहियों
कोई
से
कछु
कई
तो
जिंदा
गाड दूँगा
भाई
से
कुछ
कैसे
कहे
ग्रहस्थी
का
आधे
से
ज्यादा
खर्चा
उठा
रहा
था
माई
बाप
की
चुप्पी
और
बिदिंया
का
चाचा
का
आना
बढ़
गया
यमुना
उफान
पर
थी
साथ
ही
माई
बाप
की
निगाह
बिंदिया
के
उफनते
शरीर
पर
पड़ी।
चलो
बच्चों
यमुना
जी
दिखा
लाऊँ
पुल
से
देखी
यमुना
किनारे
से
देखी
चलो
देखोउधर
टीले
से
देखते
है
बच्चे
उत्साहित
थे
टीले
पर
चढ़ी
बिंदिया
लुढकती
यमुना
में
गिरी
उसे
लगा
था
बाप
ने
धक्का
दिया
हाय
पैर
मारती
बिंदिया
को
झुककर
देखता
रहा
पर
बच्चे
चिल्ला
उठे
उधर
रक्षा
नौका
पास
ही
थी पहुँच गई
खीचकर
उसे
फिर
संवधराम
को
सौप
दिया
थरथर
कापत
बिंदिया
खिसटती
सी
घर
आई
कोने
में
बेठी
रोती
कमली
अवाक
सी
उसे
देखती
रही
अरे
तू
वापस
आ
गई
तो
बाप
ने
ही
धक्का
दिया
था
उसे
लगा
वास्तव
मे
केवल
वह
जिंदा
मांस
है
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