Sunday 10 January 2016

बहुत याद आता है प्यारा सा बचपन: भाग 3

माँ कर असज श्रसर चिन्ह अंकित है जसे अंत तक कहर। कभी-कभी हैरानी होती है जैसे पहले महिलाओं में परिपक्व एकदम आती और उसके बाद दह ठहर जाती एक जगह स्थिर जब से होश संभाला या माँ की याद है एक ही छवि सीधे पल्ली दरम्याने कद गोहो रंग सुतवां नाक बड़ी-बड़ी आंखे। आंखे तो पिताजी की बड़ी-बड़ी थी। 



हमारा परिवार कहलाता ही था किताब वालों का परिवार या आंखों वाला परिवार छोटे बड़े बंटी बहू बंटी सबकी आखें बड़ी और काली थी। एक अलग ही थलक सबके चेहरे पर दिखती थी कोई पूरे देश में भी मिल जाये और परिवार को जानता होता तो तुम फलाने घर के ही सबके चेहरे पर परिवार जड़ गया था।


       हां तो पुस्तकों की बात कर रही थी घर के पास ही था गांधी पर से वहा एक बड़ी सी लाइबेरी थ्ज्ञी वहां के पिताजी सदस्य थे पर हम सबके लिये किताबों की कोई बंदिश नहीं रहती थी दो चार कितनी भी किताबें ले लेते थे। संचालक को जब भी पांच सौ रूप्ये की जरूरत होती बाबूजी को दौ सौ उपन्यास गिरवी रख जाता। 


जब पढ़ लेते तब बाबूजी उन्हें बदलवा लेते। यद्यपि माँ गीता प्रैस गोराखपुर को कल्याण पढ़ती पर सामाजिक उपन्यास उन्हें बहुत अच्छे लगते। पहले घर के हर कमरे में गोलम्बर आले दिवाले अवश्य हुआ करते थे हर कमरे में आले दीपक या लालटेन रखने के लिये बने होती थी। कौने पर डिजाइन दार कोना बना होता था। गोलम्बर शायद आज के बच्चे आले दीवाले गोलम्बर समझ पायेंगे। दीवारें चैड़ी बनती दरवाजे के ऊपर करीब दो फुट ऊचाई तब तक एक खाना सा बना दिया जाता


जिसमे दीवाल के किनारे शीशे लगाये जाते रोशनी के लिये रंग बिरंग डिजाइन से लगे शीशे या ईट की जालीदार खिड़कियाँ फिर होती। वे अगर बाहरी दीवार पर होती तो गौरेया, कबूतर उन मे घोसला बना कर अपना ठिकाना बनाते जो हम सब बच्चों के लिये एक प्रतिदिन कर खेल होता स्कूल से आकर एक तरफ सबसे पहले घोंसले मे अंडा उसके बाद बच्चा और पल-पल का बढ़ना चोंच खोल पहला हल्का पीला पन लिये रोम आते फिर धीरे-धीरे वे रंग बदल कर हल्का नीला और गहरा नीला हो जाता इसके साथ ही अपनी माँ से दाना मांगना देखते साथ ही भीषण संहार तब वह हमारे लिये दुर्घष ही था 



जब दीवार पर लटकता बंदर आता और उन अंडो को ख्रख के बंदर आता और उन पर अंडो को रखकर तृप्ति से बढ़ जाता और चीची करती चिडि़या कुछ देर घूमती फिर अपने मातृत्व के हतभाग्य पर रोती बलपती बंद फिर आती अधिकतर बसंत ऋतु मे वह गुलजार रहता हो कबूतर का घोंसला निश्चित नहीं था चाहे जब कबूतर कबूतरी का जोड़ा आकर पहले निर्वासित घोसले जोड़ना शुरूकर देता।


फिर अधिकतर कबूतरी ही दिखाई देती बैठी हुई दिन रात कभी देा कमी दो कमी दो कमी एक सफेद अंडा होता। अगर दुष्ट बंदर के ग्रास बनने से कोई-कोई दीर्घायु कबूतर बच रहता तो उसके पल-पल बढ़ने को हम देखते जैसे जैसे रोम आते जाते बच्चा सुंदर होता जाता पखो के आने के साथ रंग भी बदला जाता फिर प्रारम्भ होता प्रशिक्षण उड़ने का बार-बार माँ कबूतरी उड़ती बच्चा पंख फेलाता फड़फड़ाता जरा सा बढ़ता बैठ जाता


फिर खाली हो जाता घरोंदा नये जीवन के आने तक पता नहीं अगला जीवन क्षण मंगुर होगा या दीर्घ काल रूपी बंदरों के हाथ से बचेगा या उनका भक्ष्य बनेगा कई बार तो हम बच्चों की सेना एक तरफ से बारी-बारी बंदरों को मारने के लिये खड़े रहते थे परंतु हमारे निर्मित अनेको काम रहते जिसमे स्कूल जाना खाना, सोना खेलना पढ़ना ऐसे में कब मौका पाकर बंदर उस आले तक पहुँचता पता नहीं चलता था



चिड़ी अधिकतर अपना घोंसला पंखे पर बनाने का प्रसास करते या पंखे के ऊपर बने गोले पर चच....... जर अक्ल नहीं है इतनी जगह पड़ी है। 


इसे पंखा ही मिलता है हार थक कर चिड़ाचिड़ी सही जगह पहुंच जाते और ईटें की जाली पर घर बना लेते पर बसंत के बाद ग्रीष्म और एकाएक घर में चल उठे पंखे उन्हें नहीं बता पाते कि यह हवा चक्र उनके जीवन की गति को समाप्त कर दूंगा। जब चिडि़या बच्चे को कमरे मं ही उड़ना सिखाती हम सबको गर्मी में बैठे रहना पड़ता माँ पंखा नहीं चलाने देती थी। कट जायेगा। 



जब चिडि़या नहीं दिखती और पंखा चल रहा होता था। दुर्भाग्य चिडि़या को खींच लाती एक शोर उठता अरे-अरे-अरे पर वह टकरा ही जाती कभी चोंच खोल पड़ जाती तो सब उस पर मुध जाते कोई पानी पिलात कोई घाव पर महलहम लगाता औश्र कोई उसे बाहर फेंक कर आता कभी जान रहती तो उसे गोलम्बर पर रख दिया जाता। जहां से कुछ देर में पंख फड़फड़ाता उड़ जाती।

हां तो बार-बार कितबों की बात रह जाती है यदि यादें भी तो गहरे समुद्र में से हर तिहर के साथ चुन-चुन कर निकल आती है कभी सीप सी कभी पंख सी कभी मनवी के मुझे मे एक मधवी  भिनभिनाती कमी कहीं बैठ आती है कभी कही। कल्याण के विशेषांक को माँ तो पूरा पढ़ती पर हम सब आगे से चुन-

चुन कर कराऐं पढ़ते लेकिन किताबों के अंदर छिपाकर सारे जासूसी उपन्यास या सामाजिक उपन्यास पढ़ जाते सैक्सटन ब्लैक और पेटी मैसन का जमाना था साथ ही एडगर राइस दरों की टार्जनसिरीज जिसका अनुवाद स्वंय हमारे ताऊजी बाबू वृन्दावन दास  चाचाजी काशीनाथ जी ने किया था।

 किताबों के प्रेम की एक घटना आज भी याद हो एक दोपहर गरमी के दिन थे कमरे के दरवाजे बंद कर मोरी मे कपड़ा ठूंस पानी भर देते थे आधा कमरा पानी से भरा रहता दो दरबाजों पर खस की टटिया लगी रहती एक दरबाजे में थोड़ी मिसरी कर में मेरी माँ बहन और भाभी लेटे-

लेटे किताबें पढ़ रहे थे। मेरे हाथ में देखने के लिये चंदामामा भी पर उसके अंदर शरतचंद की परिणीता थी ललिता डरी सहमी सीढि़यों पर खड़ी है और पता नहीं क्या था कि आंसू पांछ चुकी थी। माँ शुमदा मे ललना छलना के साथ उनके दुर्भाग्य पर रो रही थी।


बहन नौका डूबी रवीन्द्र नाथ टैगोर की पढ़ रही थी। और भाभी छोटी मां पढ़ रही थी। उन्होंने किताब एक तरफ रख सुबकना शुरू किया। भाई देर से आया था उसने प्याली में सब्जी छोड़ी तो माँ डांटते हुए बोली खाना नहीं फेंकते कितनी मुश्किल से मिलता है


देख तो छलना बिचारी को कुछ नहीं मिला तो सहजन के पत्ते तोड़ कर लाई है यह कहती उन्होंने पल्ले से अपनी आंखे पोंछी। उसी समय बाबूजी के मिज श्यामसुंदर जी की पत्नी आई तुरंत सबने किताबे छोड़कर बल्ब जलाया। पहले जमीन पर चटाई बिछाकर ही दिन मे बैठ जाता था

बहुत याद आता है प्यारा सा बचपन: भाग 4

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