सब में
आपस
मे
होड
लगी
रहती
किसकी
तख्ती
ज्यादा
साफ
चमकदार
है
पेन्ट
से
सफेद
लाइन
बनायी
जाती
,बडी
सुंदर
सी
सीपी
से
उसे
घिसते
थे
तख्ती
एकदम
चिकनी
हो
जाती
जब
ज्यादा
बदरंग
हो
जाती
तब
कोलतार
से
उसे
फिर
पेन्ट
कराया
जाता
तब
तक
सलेट
भी
आ
गई
थी
उस
पर
भी
लिखना
सिखाया
गया।
जैसे
कि
बच्चों
मे
धुन
होती
है
सलेट
साफ
रहे
इसलिये
हर
कपडे
का
प्रयोग
किया
जाता
खास
तौर
माँ
के
रूमाल
।
हम
चुपके
से
लेकर
भिगोकर
सलेट
पौछते
तब
माँ
बाजार
का
खरीदा
रूमाल
नही
उपयोग
मे
लाती
थी।
मलमल
के
टुकडे
पर
कोने
में
कढाई
करती
थी
कभी
जाली
लगा
कर
क्रासस्टिच
से
फूल
बनाती
या
छोटी
सी
फुलकारी।
चारो और किनारे पर रंग बिरंगे धागे से कढाई करती कितने ही प्रकार की डिजाइन बनाती। हम बच्चो को सबसे सुविधा जनक वही कपडा लगता। माँ देखती कहती और ,‘मिटो यह क्या किया मुझसे मांग लेते कपड़ा ’ अपनी मेहनत की दुर्दषा पर खीझती पर हमारे लिये वह महज कपड़ा था बेकार कपडा जिससे पसीना पौछा जा सकता है तो सलेट भी पौछी जा सकती है।
चारो और किनारे पर रंग बिरंगे धागे से कढाई करती कितने ही प्रकार की डिजाइन बनाती। हम बच्चो को सबसे सुविधा जनक वही कपडा लगता। माँ देखती कहती और ,‘मिटो यह क्या किया मुझसे मांग लेते कपड़ा ’ अपनी मेहनत की दुर्दषा पर खीझती पर हमारे लिये वह महज कपड़ा था बेकार कपडा जिससे पसीना पौछा जा सकता है तो सलेट भी पौछी जा सकती है।
आज
अपनी
कई
इसी
प्रकार
की
नादानियों
पर
हंसी
भी
आती
है
क्र्रोध
भी।
माँ सफेद
हरे
लाल रंग
बिरंगे
मोतियों
से
जिन्हें
पोत
कहती
थीं
बहुत
सुन्दर
सामान
बनाती
थी चैपड़,
पैन
का
कवर,
पसर्,
दवात
का
कवर,
रूमाल
का
केस
आदि
बनाती
थी।
मोती
इकटठा
करने
के
चक्कर
में
हम
उन्हे
तोड़
तोड़
कर
अपनी
डिब्बी
भी
भर
लेते
थे।
नाना
मामा
का
घर
भी
कुछ
दूरी
पर गऊ
घाट
पर
था।
यहाँ
पर
बहुत
सुन्दर
घाट
पास
ही
था
और
घाट
के
किनारे
किनारे
एक
रास्ता
जाता
था
कंस
टीले
के
लिये
जहां
कंस
का
महल
था।
मामा
जी
हमारी
माँ
से
पन्द्रह
वर्ष
बड़े
थे।
मामा
जी
के
छोटे लडके
हमारे
से
एक
दो
साल
बडे़
ही
थे
जब
कि
मामा
जी
के
बडे
बेटे
पुरूषोत्तम
दास
के
बच्चे
हमारे
बराबर
थे
।
नानी
का
लाड़
हम
पर
अधिक
था।
नानी
अपना
खाना
अपने
आप
बनाती
थी
उनका
कमरा
मामा
घर
की
दूसरी
मंजिल
पर
ही
था
।
हम
लोग
कभी
मामा
के
घर
आ
जाते
कभी
मामा
जी
के
यहां
से
बच्चे
हमारे
घर
आ
जाते
अधिकतर
हम
ही
जाते।
नानी
देखती
चुपके
से
इषारे
से
अपने
पास
बुला
लेती
और
अंदर
तिवारी
में
ले
जाकर
लडडू
खिलाती
,‘लाली
चुपचाप
खा
ले’
अभी
विष्णु ओमी
आ
जायेंगे
तो
खा
जायेंगे
।
विष्णु ओमी स्वयं उनके पोते ही थे लेकिन हम पर नानी का प्यार ऐसे ही उमडता था। चुपचाप हथेली मं एक आना दो पैसे थमा देती। सुबह मंदिर आती तो कभी कभी घर पर आती कभी ऊपर नही आती पिछले दरवाजे पर कुंडी खटखटा खड़ी रहती। नानी की जो छवि आज भी आंखां मे घूमती है दादी नानी के नाम पर वही बनती है नानी का चेहरा निरीह सा दुबली ढीला ढीला ब्लाउज सफेद सीधे पल्ले की सूती धोती। सफेद ही चादर मेरी माँ का नानाजी की मृत्यु के महिने भर बाद जन्म हुआ था। उन दिनों मथुरा षहर में महिलाऐं चादर ओढ़ती थीं । चादर ढाई गज का सिल्क मलमल आदि का कपड़ा होता था ये टिष्यू के जरीदार कढ़ाई वाले भी होते हैं जिसे दुप्पट्टे की तरह लपेटती थीं आज भी चैबन दुप्पट्टा ओढ़कर ही निकलती हैं। नानी कभी डिब्बे मे लडडू कभी बरफी कभी हलुआ ले आती। बसंत पंचमी पर नानी का इंतजार रहता वो हमारे लिये बेर गुडडे गुडियों का सैट लाती ।
नानी घर के दरवाजो पर मोती सीपी की रंग बिरंगी झालर लगी रहती थी हम लडियां तोड लेते और मामी की तीखी आवाज से भाग लेते। आज अपने पोते पोतियों के सामान बिगाडने पर क्रोध आता है तो साथ ही अपनी हरकतं भी ध्यान आ जाती है आज कोई चीज हम नही सजा पाते तब भी सजावट को कैसे बिगाड देते थे। उन मोती सीपियों से फिर तरह तरह की मालाएं लटकन बनाते गुडडे गुडियों के जेवर बनाते।
मोल भाव :भाग 3
विष्णु ओमी स्वयं उनके पोते ही थे लेकिन हम पर नानी का प्यार ऐसे ही उमडता था। चुपचाप हथेली मं एक आना दो पैसे थमा देती। सुबह मंदिर आती तो कभी कभी घर पर आती कभी ऊपर नही आती पिछले दरवाजे पर कुंडी खटखटा खड़ी रहती। नानी की जो छवि आज भी आंखां मे घूमती है दादी नानी के नाम पर वही बनती है नानी का चेहरा निरीह सा दुबली ढीला ढीला ब्लाउज सफेद सीधे पल्ले की सूती धोती। सफेद ही चादर मेरी माँ का नानाजी की मृत्यु के महिने भर बाद जन्म हुआ था। उन दिनों मथुरा षहर में महिलाऐं चादर ओढ़ती थीं । चादर ढाई गज का सिल्क मलमल आदि का कपड़ा होता था ये टिष्यू के जरीदार कढ़ाई वाले भी होते हैं जिसे दुप्पट्टे की तरह लपेटती थीं आज भी चैबन दुप्पट्टा ओढ़कर ही निकलती हैं। नानी कभी डिब्बे मे लडडू कभी बरफी कभी हलुआ ले आती। बसंत पंचमी पर नानी का इंतजार रहता वो हमारे लिये बेर गुडडे गुडियों का सैट लाती ।
नानी घर के दरवाजो पर मोती सीपी की रंग बिरंगी झालर लगी रहती थी हम लडियां तोड लेते और मामी की तीखी आवाज से भाग लेते। आज अपने पोते पोतियों के सामान बिगाडने पर क्रोध आता है तो साथ ही अपनी हरकतं भी ध्यान आ जाती है आज कोई चीज हम नही सजा पाते तब भी सजावट को कैसे बिगाड देते थे। उन मोती सीपियों से फिर तरह तरह की मालाएं लटकन बनाते गुडडे गुडियों के जेवर बनाते।
मोल भाव :भाग 3
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