Sunday 10 January 2016

बहुत याद आता है प्यारा सा बचपन: भाग 8

गुडडु गुडि़या को शादी तो प्रसिद्ध है ही अब भी बच्चे डाल हाउस के रूप् में बार्बी डाल के साथ खेलते हैं तब कपड़े की गुडि़या बनाना माँ से सीखा और दादी भी और नानी भी बहुत बहुत सुंदर गुडि़या बनाती।


       चक चक चलनी भी मजेदार खेल था। इसके लिये पांच लोग होना आवश्यक थे। चार कोनो पर चार बच्चे खड़े होते एक चोर बनता हर घर पर कहतां। चक चक चलनी जिससे मांगता वह कहता पल्ले घर मंगनी वह दूसरे घर बढ़ता और पहले दोनों घर वाले भाग कर अपना स्थान बदलते ऐसे में चोर भाग कर  उन्हें पकड़ता।


यदि तो एक एक कर कितने ही खेल रहे हैं पर साथ ही याद रहा है कितना भी शोर मचाते पर अगर बाबूजी ऊपर जाते तो घर एक दम छमम हो जाता सब जहां वहां छुपजाते किसक जाते। वैसे अचानक चूड़ीदार पजामा और गोल टोपी पहन करे आम तौर पर धोती कुर्ता पहनते थे 



गदुभी रंग भरा लंबा शरीर आंखें बड़ी-बड़ी सुतवा नाक एकदम रौबीला चेहरा था जब कमी क्रोधित होते तो चश्में से झोकती उनकी आंखे दिल दहला देती थी। कुछ बोलते नहीं बस चेहरा फला चश्में से झोकते वही झोंकना हामारा खून सुखाने के लिये पर्याप्त होता था।


       रेडियो सुनने के लिये हम छोटे थे लेकिन मेरी बड़ी बहन का विविधभारती पर गाने सुनने का बहुत शौक था बाबू जी नीचे दुकान पर होते तो ठीक-ठीक आवाज में गाने बजते रहते लेकिन बाबूजी के आने की आहट के साथ ही रेडियो बंद हो जाता और सब अपने अपने काम में ऐसे लग जाते

जैसे कितने सीधे हैं बाबूजी के ऊपर आने की वे एक पहचान बना रखी थी। अधिकतर उनके गले से एक हल्की सी खबर निकलती है वह सुनते ही समझा जाते बाबू जी ऊपर रहे हैं साथ ही आसमानी शोर पाताल में पहुंच जाता। कुछ अन्य काम ऐसे थे


जिन्हें हम बाबूजी से छिपकर करते थे वह था बाजार से चुस्की, मीठी, गोली आदि लाना वह हम पीछे के दरवाजे से बाजार आते। पिछला दरवाजा गली में खुलता फिर बाजार में पहुंचा जाता बाहर निकल कर पहले झांकते बाबूजी बारहर की तरफ तो नहीं बैठे हें वेसे हम यह देख कर जाते थे कि बाबूजी बाहर बैठ हो तब जायें पर कभी-कभी धोखा हो जाता हम ऊपर आकर बाजार जाते तब तक बाबूजी बाहर कुर्सी पर बैठते बस दम हो जाती थी वहीं चश्में से झाकती दो आंखे दम निकालने के लिये काफी होती थी।


       हमारे छोटे ताउजी का बेटा महेश को नाटक खेलने का बहुत शौक था पूरा स्टंज कार्यक्रम तैयार होता कई दिन तक प्रैस में रिहर्सल करने के लिये जाते वाकायदा कार्ड बनते और तावत विछाकर स्टेज बनाये जाते और सारे परिवार को बुलाकर नाटक खेले जाते। आज भी याद है हम छोट-छोटे बच्चे पूरा प्रबन्ध मिलकर कर लेते थे 


बड़ो का सहयोग सह रहता कि चादर मांगते मिल जाती ड्रेस पहनने के लिये मां की साडि़याँ मिल जाती साथ ही चाहे बाबा दादी ताऊ जी ताईजी सभी बड़े भाई बहन सब एकत्रित कि बच्चों को खेल है बाकायदा आकर देखते और प्रोत्साहित करते थे।

बहुत याद आता है प्यारा सा बचपन


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