कहते है न कि घूरे के भी
दिन फिरते है। कुछ दिन घूरे के फेरे चंड़ीगढ़ के नेकचंद ने ,जो उन्होंने एक पूरा रॉक गार्डन ही बना डाला । उन्हीं की तर्ज पर बड़े
छोटे शहरों ,पहाड़ी इलाकों में टूटे फूटे सामान से बनी तरह
तरह की आकृतियाँ मिल जायेंगी। हो सकता है उमसें आपकी बिटिया की टूटी गुडि़या हो या
आपके द्वारा फेंकी हुई केटली , पीढि़यों से चला आ रहा पुराना
मटका, अगर कोई उन मूर्तियों में से लिये हो तो रोने मत
लगियेगा कि हाय! यह आपने क्या किया ,इतनी नायाब चीज फेंक दी।
क्योंकि आप देख ही रही है कि अब दिन फिरे हैं दादी नानी के सामान के जो अब खजाने
से कम नहीं हैं। जिन्हें अब से कुछ समय पहले घर के कबाड़ खाने में रखा जा चुका था
जो पहले भंडार घर के कोने में धुंआई छत के नीचे मुँह फाड़े खाली पेट खड़े थे कि हाय! हम में कितना नाज रखा निकाला जाता था।
लेकिन आयी इकली दुकली
गृहस्थी, न जोड़ने का झंझट न पीसने पिसाने का। पानी के
बड़े बड़े कलसे जिन्हें कहार सुबह ही सुबह कुएँ से भरकर लाता था और कपड़े से ढक कर
एक के ऊपर एक रख जाता था।
लेकिन अब वही
बाल धो पोंछ कर ड्रांइगरूम में लगाये जा रहे हैं। पहले तो तांबे पीतल के बर्तन
जमुना की रेती से रगड़ रगड़ कर चमकाये जाते थे अब जितने पर्त चढ़े हरी जंग लगे हैं
उतने ही नायाब है। पुराना लंबा रेडियो जिसे अम्मा रेडि़या कहतीं कि मिटा गाने नहीं
सुनने देता बार बार खरड़ खरड़ करने लगता है, जब नये जमाने का
छोटा सा रेडियो आया तो ताक पर रख दिया गया, घुमा घुमाकर
बजाया जाने वाला ग्रामाफोन ने भी कई अपने भाई बन्धु देखे ,जो
एक एक कर पुरानी धोतियों में बंध कर टांड पर इक्कठे हो गये थे।
भला हो अम्मा का
जिन्हें कबाड़ जमा करने का शौक था । जिन्हें हर चीज से इतना लगाव हो जाता था कि
उसके बिना जीने की भी नहीं सोच पाती थीं। ये तो मेरे बाबूजी ने दिया था उनकी
निशानी है अब वहीं शीशे के शोकेस में ड्रांइनरूम में रखा लोगों की ईष्र्या का
पात्र हैं।
अगर श्रीमती
अग्रवाल ने तीन मिट्टी के हंडे रखे तो श्रीमती सब्बरवाल तांबे का कलसा खरीद लाई और
बड़ी शान से बता रहीं थी कि इसमें किसी जमाने में बीरबल का पीने का पानी भरा जाता
था। इसी का पानी पीकर बीरबल इतना बुद्धिमान बना था। अब यहाँ दूसरी पीढ़ी को तो
मालुम नही रहता कि कौन सा बर्तन किसके गीत हुए उनमें आया या किस शादी में मिला,
या किसका खाया बर्तन किधर लुढ़क रहा है वो पांच सौ वर्ष पूर्व की
बात बता रही हैं।
चाक चलाने के
लिये कुम्हारों के खुरदुरे हाथ अब बेकार हो गये, लम्बे लम्बे
नाखूनों वाली पतली कोमलांगी उंगलियाँ बड़े-बड़े चीनी मिट्टी के हंडे गमले बना रही
हैं, अपने कद से ऊँचे बर्तन बना रही है। कितने ही कवियों ने
स्त्रियों के शरीर को घड़े मटके, सुराही का रूप दिया खुद अब
वे ही कुम्हार हैं सो क्या बात है ईश्वर भी तो कुम्हार है।
श्रीमती कुणाल
जिस दिन तंजावुर शैली की पैटिंग लेकर आई उस दिन ही पार्टी में घूम घूम कर देखती
अन्य महिलाओं के उड़े चेहरे की रंगत देखकर उन्हें अलग ही आनन्द और उत्साह आ रहा
था। ईश्वर इस उत्साह को बरकरार रखे । जो नहीं ले सकें कम से कम पार्टी के लाजबाब
व्यंजनों को गपागप खाते रहें और ऐश करती रहें।
उनके द्वारा
पढ़े जा रहे तारीफ के कसीदे श्रीमती अग्रवाल से सहन नही हुए उन्होंने ठुमुक कर जोश
में भरकर कहा, ‘अरे मेरे घर आना मैंने वृन्दावन से किशनजी की
बनाई पेन्टिग मंगाई है।’
‘सच..’कुछ आवाजें चहकीं तो एक जली फुंकी ने अपना ज्ञान बखेरा किशन जी की ..ये
कौन कृष्ण भगवान की वहाँ बहुत मिलती है मोती काँच की बनी।
मिसेज अग्रवाल
का चेहरा उतर गया, परन्तु अवज्ञा से बोली, ‘जी नहीं किशन जी ऐसी वैसी पेन्टिग नहीं बनाते, उनकी
पेन्टिग में सोना होता है नगीने होते हैं...असली।’
‘ओहो... आप
कन्हाई जी की बात कर रही है’ ,’उन्होंने मुस्कान कुछ दिखाते
कुछ झलकाते कहा, और फिर जिसने नाम नहीं सुना उसकी नाजानकारी
पर हिकारत भेजती अपनी जानकारी पर गर्व करती फुसफुसाई ‘पता है
उनकी एक छोटी सी पेन्टिग भी 50,000 से कम नहीं होती।’
‘‘पचास
हजार... क्या उन पर बहुत पुरानी तस्वीर हैं या हुसैन, वेन्द्रे
की हैं।’ अपनी जानकारी पर बहुत जोर मारती श्रीमती सक्सैना
बोली।
‘फू....फू....फू....
लो सुनते जाओ’ श्रीमती जैन बोली, ये
इतना भी नहीं जानती, अरे भाई
वाह! क्या बात है ? अगला भाग
वाह! क्या बात है ? अगला भाग
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