घर दुकान
के
ऊपर
ही
था।
पीछे
बड़ा
सा
आंगन
और
अंदर
कमरे
जहां
कपडे
की
गाठ
आदि
बंधती
थी।
तब
अधिकतर
कोई
न
कोई
रिष्तेदार
या
बहनें जिनका
विवाह
दिल्ली
लखनऊ
मे
हुआ
था
आती
तो
बाबूती
चाट
का
खोमचा
अंदर
ही
बुला
लेते
थे।
कभी
कभी
दुकान
के
पीछे
आंगन
मे
बाबूजी
तरह
तरह
के
सामान
बनवाते
थे जब
फ्रिज
नाम
की
कोई
चीज
नही
थी
हाँ
पानी
ठंडा
करने
के
लिये
घडे
जरूर
कपडे
से
ढक
कर
रखे
जाते
थे
नीचे
बालू
बिछाई
जाती
उस
पर
बडे
बडे
मटके
रखे
रहते।
सुबह
ही
कुऐं
का
पानी
लाने
वाला
पीतल
के
घडे
में
कुए
का
पानी
भर
जाता
वैसे
हमारे
घर
में
दो
सरकारी
नल
थे जिनमें
से
एक
नल
हाईजोन
कहा
जाता
था
।
इस
नल
मं
पानी
का
दाब
अधिक
होता
था
और
छत
पर
बनी
टंकी
तक
पहुंच
जाता
था
छत
पर
पत्थर
का
पूरा
एक
छोटा
मोटा
सा
पानी
का
कमरा
जैसा
था
दूसरा
नल
केवल
दूसरी
मंजिल
तक
जाता
था
पर
पीने
का
पानी
कुए
से
आता
था।
घडे़
वाला
गिन
कर
घडे़
लाता
था
पीतल
का
चमचमाता
घडा
।
बाबूजी
उसके
घडे
देखते
और
मंद
मंद
मुस्कराते
आधा
भर
कर
लाया
है।
गर्मियो
मं
पानी
ठंडा
घडे
से
किया
जाता
और
लस्सी
आदि
बाजार
से
बर्फ
लाकर
बनाई
जाती।
बर्फ
की
सिल्लियां
लेकर
सुबह
ही
फेरी
बाला
सडक
पर
टाट
बिछा
कर
रख
लेता
और
छेनी
से
अंदाज
से
तोडता
सेर
आधा
सेर
जो
भी
मांगो
नपीतुली
छेनी
चलती
जैसे
हाथों
ने
बर्फ
को
तोल
लिया
हो।तब
उस
बरफ
से
न
इन्फेक्शन
होता
न
गला
खराब
होता।
अन्य
ठंडी
चीजे
खाने
की
थी
कुल्फी
और
पत्ते
की
बर्फ
कपडे़
मं
लपेट
कर
आम
की
कुल्फी
लाता
काट
काट
कर
बरगद
के
पत्ते
पर
देता
पर
बाबूजी
खाने
पीने
के
बहुत
शौकीन
थे
बर्फ
बनाने
की
मषीन
बाबूजी
से
लाये
बीच
के
हिस्से
मे
दूघ
आम
रबडी
डाली
जाती
उसके
चारो
ओर
बर्फ
के
टुकडे
नमक
डालकर
फिर
उसे
बंद
कर
घुमाया
जाता
कुछ
देर
मे
मजेदार
कुल्फी
तैयार
होती।
तब
तरह
तरह
के
फलो
की
कुल्फी
तैयार
की
जाती
लीची
खरबूजा
फालसा
तरबूजा
आदि
डालकर।
गर्मियों
की
छुटिटयां
एक
तरह
का
परिवारिक
त्यौहार
सा
रहता
प्रतिदन
कुछ
न
कुछ
बनता
और
सब
एकत्रित
रह
सहायता
करते
कोई
तष्तरी
ला
रहा
है
तो
कोई
चम्मच
इसलिये
बनाने
बाले
में
उत्साह
रहता
और
परिबार
एक
जुट
रहता
आजकल
की
तरह
नही
कि
सब
अपने
अपने
कमरे
मे
कम्प्यूटर
या
टीबी
मे
उलझे
है
अपनी
पंसद
की
चीज
के
लिये
होटल
मे
फोन
किया
और
मंगा
कर
अकेले
खा
लिया
पता
ही
नही
चलता
घर
में
कितने
सदस्य
है
भी
या
नही।
चाहे
जब
मन
होता
बडी
कडाही
आदि
आंगन
मे
अंगीठी
पर
चढ
जाती
और
प्रारम्भ
होता
कभी
भल्ले
बनाने
का
कार्यक्रम
तो
कभी
कचैडीयां
उतारने
का
संरजाम।
हम
बच्चो
की
जिम्मेदारी
थी
ऊपर
से
नीचे
सामन
पहुचाने
की
लाख
कोषिष
रहती
एक
बार
में
सामान
चला
जाय
पर
बार
बार
‘अरे!
पुराना
कपडा
ला
जा
फलानी
बडी
कलछी
ला, धत
तेरे
की
देख
पौनी
तो
है
ही
नही
दुकान
और
आंगन
के
बीच
पर्दा
पडा
रहता
था
उस
पर्दे
को
उठा
दिया
जाता
और
दुकान
के
कर्मचारी
भी
लग
जाते।
सबसे
बडे
भैया
दाऊदयाल
है
उन्हे
खाना
बनाने
का
बहुत
शौक
तो
अन्य
भाइयों
को
भी
बहुत
है
जिसमे
ओकर
नाथ
तो
बेहद
बढिया
चाट
आदि
बनाते
हैं
जब
भी
बडी
बहन
व
जीजाजी
आदि
आते
चाट
का
खोमचा
आंगन
मे
बुला
लिया
जाता
मन
भर
कर
सब
चाट
खाते
वैसे
तो
पता
नही
कितनी
भूख
लगती
थी
बचपन
में
प्रातः
कचैडी
का
नाष्ता
दोपहर
रोटी
शाम
को
चाट
खाना
और
फिर
छः
बजे
से
खाना
रात
को
दूध
वैसे
तो
अधिकतर
बाबूती
नाष्ते
मे
कचैडी
मंगाते।
माँ
मंदिर
चली
जाती
हम
बच्चे
दूघ
गरम
कर
बाबूजी
को
देते
पीछे
भी
एक
दरवाजा
था
जो
गली
मे
खुलता
था
उससे
जाकर
अपने
एक
आने
की
कचैडियां
लाते
और
एक
आने
शाम
को
कुछ
न
कुछ
ले
आते।
छोटे
छोटे
बाजार
के
काम
हम
बच्चों
के
सुपुर्द
रहते
न
अपहरण
का
डर
न
बाल
यौन
शोषण
का
डर
,आज
के
बच्चे
खुली
हवा
मे
सांस
नही
ले
सकते
हम
बच्चे
बच्चे
अकेले
यमुना
पार
खेतों
पर
चले
जाते
यमुना
का
हर
घाट
पर
हमारी
क्र्रीडा
स्थली
था।
घाटियों
पर
बने
मथुरा
मे
मुख्य
बाजार
तब
एक
ही
था
होली
गेट
से
लेकर
गऊ
घाट
तक
बाकी
शहर
गलियों
मे
बसा
था
ऊॅची
ऊॅची
पतली
गलिया
गली
गली
एक
छोर
से
दूसरे
छोर
पहुँच
जाओ।
माँ
के
पीछे
मंदिरो
मे
जाते
एक
गली
से
दूसरी
गली
मे
तीसरी
गली
मे
जाकर
हर
मंदिर
मे
चले
जाते।
उन्मुक्त
पछी
की
उडान
थी।
कोई भी
यात्रा
जलूस
शोभा
यात्रा
निकलती
हमारे
घर
के
सामने
से
अवष्य
निकलती
गणेष
शोभा
यात्रा
से
प्रारम्भ
होकर
कई
दिन
रामलीला
की
अन्य
लीलाओं
के
स्वरूप
निकलते
पर
मुख्य
रूप
से
राम
बरात
निकलती
हमारे
घर
से
कुछ
पहले
ही
वहां
का
सुप्रसिद्व
द्वारिकाधीष
जी
का
मदिर
है
उसके
पास
की
स्थान
कुछ
चैडा
है
वहाँ
से
राम
बरात
आरम्भ
होती
थी
सबसे
पहले
निकलता
हाथी एकादषी
के
दिन
बारात
निकलती
थी।
सात
बजे
से
हम
प्रथम
तल
की
छत
पर
स्टूल
कुर्सियां
लेले
कर
अपना
स्थान
सुनिष्चित
कर
लेते
थे।
लाल वस्त्र भयानक मुखौटा और लंबी निकली लाल जीभ खोपडियों की माला गहरा काला रंग हाथ मे लंबी चमचमाती तलबार और एक हाथ में खप्पर। बीच बीच मे तलबार चलाते दुकानेां पर भैरव,और काली माई आती। झूम झूम कर तलवार लहरा लहरा कर खप्पर भरने के लिये खडे़ होते। कहते है पहले असली तलबार उनके हाथ मे रहती काली माई और काल भैरव को शराब पिलाई जाती थी उसके नषे मे उन्मत्त हो जाते। कभी दुर्घटना हो गई थी तब से उनके हाथ मे नकली तलवार दी जाती थी। काली माई के भी नौ रूप बारात में निकलते थे।
पूरी बारात केा निकलने मे कम से कम पांच घंटे लगते उस दिन हमारे घर पर बहुत लोग बारात देखने आते सबके लिये खाना पीना चाट पकौडी का इंतजाम रहता परंतु एक बार की राम बरात हम बच्चां का दिन दहला देने के लिये और हमेषा के लिये राम बरात के निकलने से पहले वह दृष्य न आये यह सषंकित रहते थे
उस बार भी वैसी ही हमारी तैयारियां चल रही थी । बैड बाजो की आवाज प्रारम्भ हुई शहर के प्रतिष्ठित बैंड बाजे बाले अपनी कला का प्रदर्षन करते थे और उनकी पूर्ण शक्ति रहती कि इतना अच्छा प्रदर्षन हो कि पूरे साल उन्हें बरातें मिलती रहे। उन्हे प्रथम द्वितीय पुरूस्कार भी दिये जाते जिसे प्रथम पुरस्कार मिलता वह राम लक्ष्मण के आगे चलता था। एक एक बैंड बाजे मं पचास पचास वादक रहते इसलिये जब दूर से भी आवाज प्रारम्भ होती तो हमारे घर पर आवाज शुरू हो जाती। बैंड बाजो की आवाज शुरू हुई
हम सब अपनी अपनी सीटां पर बैठ गये साथ ही प्रारम्भ हुई एकदम भगदड शोर गुल चीख चिल्लहाट और यह क्या देखते है नीचे बंहगियो पर ठेलो पर रिक्षों पर घायल चित्कार करते लोग जा रहे है कुछ घायल तो आज भी आंखेां मे घूम जाते हैं हाथी जहां से प्रारम्भ होता है वहीं पर एक तिमंजले मकान के छज्जे व सड़क पर दोनो तरफ लोग भरे हुऐ थे नीचे भी उस समय पूरी भीड़ थी और तीन मंजिला मकान भर भरा कर गिर पड़ा पूरी सड़क पर ईट पत्थर आदि भर गये न जाने कितने उसके नीचे दब गये। हाथी भागा पर उस पर अंकुष पा लिया गया उस समय बहुत जान माल का नुकसान हुआ प्राःत चुपचाप जाकर वह स्थान देखा जहाँ मकान गिरा था और राहत कार्य चल रहा था। इच्छा थी कि न जाने क्या हुआ था पता लगाये।
बचपन की सांस्कृतिक यात्रा भाग 4
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