Sunday 10 January 2016

बहुत याद आता है प्यारा सा बचपन: भाग 4

सोफा कुर्सी तो बाहर के मेहमानों के लिये रहता था उन्होंने सबको देखा सबकी आंखे लाल चेहरा कआसा समझो कुछ हो गया है जो सब रो रहे हैं। बेचारी आई थी दोपहरी काटने पर यह क्या कुछ मातम हो गया क्या। कुछ देर सबको अपने-अपने दुःख के समुद्र में से बाहर निकलने मे लगा। मुझे ओदश पानी लानी का हुआ। 


माँ ने मुस्करा उनका स्वागत किया बैठाया आओ बहन जी तो जरा वो भी मुस्कराई पर उनसे रहा नहीं गया। सब कुछ रूआए से हो रहे थे.........क्या बात है कोई........तब सबने एक दूसरे की ओर देखा और ठठाकर हंस पढ़े। सभी का हद्रय भावुक है चरित्र के साथ-साथ चलने लगते हैं यहां तक कि सिनेमा मे भी रोने वाले सीन में रोते है। 


यह जानकर किताब पढ़ पढ़ कर सब रो रहे हैं वो देर तक किताबों के अलावा हम बच्चो की गर्मी की छुट्टियां दोपहर मे इनडेर गेम जिनमे प्रभाव थे लूडो सांप सीढ़ी व्यापार कैरम और ताश ताश और लूडो के खेल में माँ भी शामिल रहती आम तौर पर चार खेलते तो शा काट चैकड़ी होती नहीं तो छकड़ी अब तो ताश के खेल कम्प्यूटर पर बच्चे खेलते हैं। पर जो मजा उसी ढंग के स्वीप बगैरह में आता था उन पत्रों को लगाते रहो नहीं आता।


       बाबू जी ने सबसे पहले बाबा के घर को छोड़ा था क्योंकि हम भाई बहन सबसे अधिक थे। एक कमरा मिला था उसमें समाते ही नहीं थे पिताजी का मन परिवार के काम में नहीं लगता था उनके संबंध राजनैतिक और अफसर वर्ग में बहुत रहते थे युद्ध के जमाने में उन्होंने कपड़े की गांठो का आया घर बहुत पैसा कमाया और उसी को बढ़ाना चाहते थे उन्होंने कपड़ों को बड़ी सी दुकान खोली और उसी के ऊपर के हिस्से को रिहाइशी बनाया पाँच मंजिल का मुख्य बाजार में मकान था। नीचे दुकान ऊपर मकान। दुकान तीन फड़ की बड़ी सी थी। 


बीच में सीढ़ी और इधर-उधर दो चैखटें बने थे। जब मेले ठेले के दिन होते उन चैखटों पर भी दुकान सज जाती थीं। नहीं तो वह हिस्सा खाली रहता और हमारी क्रीड़ा स्थली बना रहता। सामने ही चूरन की दुकान थी हमारे चैखटें पर थालियों में उनके चूरन की दुकान ढालों की निगाह हमें देखकर सतर्क हो जाते और मौका पाते ही दो चार गोली अनार दाना या जीवटी हमारे मुँह में होती उधर बाबुजी की आंखे हमं धमकाती पर वो छोटी-छोटी गोलियां सब धमकियों से ऊपर होती थीं।



देखने में साथ बच्चे ये चुपचाप बैठे रहते पर मौका भी नहीं चूकते थे। साथ ही दुकानदार को इशारे में कहते एक गोली खाई है बस लड़ना झगड़ना रूठना बेईमानी  करना सब शामिल रहता था अधिकतर अपने पार्टनर एक ही रखते क्योंकि पत्तों के इशारे निश्चित कर लेते। हुकुम का इका है तो अंगूठे से सिर खुजाते चिड़ी है तो हाथ पर ट्रमा बोलने में यह सब बहुत सहायक होता जाता। बीच-बीच  में कमी चना कुरमुरा भुन जाते कभी चार के दोने जाते।


       गर्मी के दिनों में पतंग भी खूब उड़ती थी। छतों पर सुबह पाँच बजे हो जाती है। माँ तो चार बजे ही उठ जाती थी पाँच बजे से प्रारम्भ होता पतग उड़ाना अपनी अपनी चर्खी पकड़ने का काम हम बहनों का या छोटे भाई का हाता पर हमारी शर्त भी रहती थी कि कुछ देर हम भी उड़ाया तभी हम चर्खी पकड़ेगें। चर्खी पकड़ना भी कला होती थी जिस समय पतंग काटने का सिलसिला चलता उस समय तेजी से ढील छोड़नी पड़ती उलझा जाये इसलिये तेजी से लपेटनी भी पड़ती। 



हर छत पर मजमा रहता दशहरे वाले दिन तो आसमान में पतंगो से पट जाता हरी, नीली, लाल, पीली छोटी बड़ी हर रंग की हर साईज की पतंग उड़ती। उस दिन पेच भी खूब लड़ते वैसे तो कटने-काटने का सिलसिला चलता ही रहता और लूटने लुटाने का पर युद्ध की तरह पेच भी लड़ते। तब दोनों दलों के समर्थक युद्ध की तरह छत पर जम जाते। ढोल ताशे आदि जमा होते ढोल की आवाज से शुरू होती



पतंग बाजी रंग निश्चित होता और समय खाना पीना चलता जो अधिक पतंग काटता उसका बाकायदा बाजार में विजय जलूस निकलता। कभी-कभी  दूर-दूर की छतों से भी पतंग लड़ाना निश्चित होता था। पेच लड़ाने की कई दिन पहले से तैयारी होती थी। डोर पर कांच के चूरे का मसाला लगाया जाता पतंगो के कन्ने बांधे जाते पतंग के साइज पर निर्भर करता था तीन अंगुल ऊपर चार अंगुल नीचे सूत पर भी धागा ऊँचा नीचा पतंगा झटका खा जायेगी कभी पतंग एक और झुकती जाती तो उसे ठीक करने के लिये दूसरी तरफ धागा बांधा जाता तब उसके बैलेंस ठीक होता। माँ चिल्लाती रहती आवाज लगाती अरे मिटों खाना पीना तो कर लो खाने का होश नहीं पतंगो में लगे हो। 




सात बजे से धूप चारो ओर छतों पर अपना साम्राज्य फैला लेती पतंग बाज कोने-कोने सिमटकर पतंग उड़ाते रहते आठ बजे तो मजबूरी उतरना ही पड़ता क्योंकि धूप की तेजी बर्दाश्त नहीं होती पर दशहरा वाले दिन सिर पर हैट या टोपी लगा कर भी उड़ाते रहते। पेच चलते रहते। हार जीत के फेसले के साथ ही बंद होती पतंग बाजी।


       सोना भी छपर ही होता था अपना अपना सोने का स्थान निश्चित था अपनी खाट पानी से भिगो देते माँ कहती शरीर उकड़ जायेगा खाट मत भिगाओ पूरी छत पर छिड़काव किया जाता। एक घड़ा पानी का ऊपर जाता। किसी किसी दिन हवा गुम हो जाती। पता नहीं कहां गई आज हवा अपने घर से नहीं निकली ‘‘माँ बाबूजी अधिकतर नीचे की मंजिल पर बनी दुछती पर ही सोते हम सब भाई-बहन ऊँची छत पर जब बहुत अधिक गर्मी का समय आता तब माँ बाबूजी ऊपर सोने आते।


       बरसात का समय होता वैसे तो छत का एक हिस्सा टीन से ढका, था उसके नीचे खाट सरकाते जाते पर अधिक तेज वारिश होने पर अपनी-अपनी दरी चादर उठाते और नीचे कमरे में भाग जाते छोड़ रहती कौन पहले पहुँचे क्योंकि पूरे पूरे दरवाजे की खिड़कियों के पास अपन बिस्तर लगाते। 


छत पर बहती हवा का कमाल था कि छः घंटे में नींद एक दम पूरी हो जाती सारा दिन शरीर चुस्त रहता अंदर ऐसी कूलर में सोने पर शरीर में एक आलस्य रहता है टूटन रहती है 

हमारे तो होती ही नहीं है अलसाई सुबह शरीर को उठने नहीं देना चाहती जबकि छत  पर सूरज कि किरन सोने नहीं देती थी चाह कर भी देर तक कोई नहीं सो पाता  

था। बाकी का काम छतों पर घूमने वाले बंदर कर देते थे। बंदर भी बड़े सधे हुए थे। कपड़े ले जाते और बैठे देखते रहते जब उन्हें रोटी या फल मिल जाता कपड़ा छोड़कर उसे उठाकर चल देते। चश्में के तो बेहद शौकिन थे खिड़की की जाली पीछे से हम भी अपने हिस्से की मूंगफली आदि खिलाते रहते। एक बार हल्ला मचा कनकटे बंदर का हल्ला था रात में वह कान काट ले जाता हमें अब बीच में सुलाया जाता था।

बहुत याद आता है प्यारा सा बचपन: भाग 5

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