नानी का घर हो या दादी का सब जगह हम उम्र बच्चे थे पर नानी के घर कम दादी के घर पर बहुत जाते। बड़े हाँल में हम बच्चों का राज्य रहता पूरी छुटिटयां हम भाग भाग कर दादी के घर पहुच जाते। मुख्य रूप से किताबें आकर्षण होती थी। प्रेस मे चारों ओर लगी मषीने बडे बडे छपते कागज और ट्रे मे रखे अक्षरो को सैट करते कंपोजर छपी हुई किताबो के बंधे बंडल। पर हम तो छपते ही बाइंड होने से पहले ही उन्हे उठाने पहुँच जाते थे।
दादी के घर में एक लंबा गलियारा था जिसे गौख कहा जाता था उसके सामने एक बडा मैदान था (बाद मे ज्ञात हुआ वह हमारे परिवार का ही था) वहां पर रामलीला खेली जाती थी गणेष चतुर्थी से प्रारम्भ होती, रामलीला। अयोध्या मे हाने वाली रामलीला का मंचन वहीं होता था और गौख से वह रामलीला आराम से देखी जाती थी रात को आठ बजे हम सब भाई बहन माँ के साथ प्रेस चले जाते और गौख मे ताई चाची व ताई चाची के बच्चों के साथ रामलीला देखते पूरे वर्ष हमे इंतजार रहता पन्द्रह दिन तक मंचीय रामलीला चलती विषेष रूप से यज्ञ मंचन में बहुत मजा आता।
हमारा घर विश्राम बाजार मे था मथुरा का मुख्य बाजार पीछे कल कल बहती यमुना और विश्राम घाट सती घाट । सती बुर्ज के लिये कहा जाता था कि यहां पर छप्पन करोड की चैथाई दबी हुई है । बुर्ज पर बडे बडे ताले लगे थे क्योकि उस बुर्ज से कूद कर कई ने जान देदी थी पता नही कैसे कहां की छप्पन करोड की चैथाई थी पर वह आम प्रचलित कहना था।
हमारे घर के प्रथम तल पर काफी बडी दुछत्ती थी नीचे सजा सजाया बाजार खाने पीने के छोटे छोटे खोमचे अधिकतर छोटे खोमचे लंम्बी टिकटी पीतल का थाल किसी मं छोटी अंगीठी पर एक और थाल उसमे मटरा किसी पर चने की दास सेब किसी पर कुटे चनेरहते थे। हमारी दुकान आजकल के शो रूम के ढंग की थी कपड़े साड़ी आदि मिलते थे सात आठ सीढ़ी देकर दुकान थी इधर उधर दो चैतरे थे फिर अंदर तीन फड़ की बडी सी दुकान जिस पर इधर उधर तख्त उन पर गद्दे व सफेद चादर बिछती बीच मे खाली स्थान था
ग्राहक के लिये बेंचे पडी थी पर जब गांव वालों का रेला आता तो वेा पूरी दुकार घेर कर जमीन पर ही बैठ जाते । एक चैतरे के नीचे एक वृद्व व्यक्ति प्रतिदिन गरमियो मे तो आलू के चिप्स बेचता था चावल की कुरेरी सरदियों में चना जोर गरम बेचता था छोटी सी हडि़या मे दो तीन अंगारे सुलगते एक संडसी से बधी रहती लेने बाले कौ उसके नीचे से निकालकर हरी मिर्च नीबू डालकर देता था। उसकी जैसी चावल की कुरेरी जीवन मे फिर नही मिली चिप्स की बड़ी बड़ी कंपनियों को तो वह बिलकुल फेल कर दे हमारे घर के पिछवाडे एक धर्मषाला थी उसके पीछे की छत पर वह बृद्व अकेला रहता था अपनी छत से हम उसे सामान बनाते भी देखते थे आज सडक के किनारे खडे खोमचे ठेले आदि की ओर हम तथा कथित सभ्य व्यक्ति देखते भी नही हैं और बच्चों को भी कह देते हैं कि इन्फेक्षन हो जायेगा
लेकिन तब सुबह की सडकें झडती थी नालियां धुलती थी। खोमचे पर ही अधिकांष चाट या चटपटी दैनंदिन वस्तुएं बिकती थी दुकान पर तो खाली हलवाई का समान मिलता था मिठाई या नमकीन। थेाड़ी थेाड़ी दूर पर चाट के खेंमचे रहते थे ,पानी की टिकिया दही सोंठ के समोसे दही बड़ा आदि । खोमचे पर खाना कभी भी औकात से कम नही आंका जाता था।
मोल भाव
ग्राहक के लिये बेंचे पडी थी पर जब गांव वालों का रेला आता तो वेा पूरी दुकार घेर कर जमीन पर ही बैठ जाते । एक चैतरे के नीचे एक वृद्व व्यक्ति प्रतिदिन गरमियो मे तो आलू के चिप्स बेचता था चावल की कुरेरी सरदियों में चना जोर गरम बेचता था छोटी सी हडि़या मे दो तीन अंगारे सुलगते एक संडसी से बधी रहती लेने बाले कौ उसके नीचे से निकालकर हरी मिर्च नीबू डालकर देता था। उसकी जैसी चावल की कुरेरी जीवन मे फिर नही मिली चिप्स की बड़ी बड़ी कंपनियों को तो वह बिलकुल फेल कर दे हमारे घर के पिछवाडे एक धर्मषाला थी उसके पीछे की छत पर वह बृद्व अकेला रहता था अपनी छत से हम उसे सामान बनाते भी देखते थे आज सडक के किनारे खडे खोमचे ठेले आदि की ओर हम तथा कथित सभ्य व्यक्ति देखते भी नही हैं और बच्चों को भी कह देते हैं कि इन्फेक्षन हो जायेगा
लेकिन तब सुबह की सडकें झडती थी नालियां धुलती थी। खोमचे पर ही अधिकांष चाट या चटपटी दैनंदिन वस्तुएं बिकती थी दुकान पर तो खाली हलवाई का समान मिलता था मिठाई या नमकीन। थेाड़ी थेाड़ी दूर पर चाट के खेंमचे रहते थे ,पानी की टिकिया दही सोंठ के समोसे दही बड़ा आदि । खोमचे पर खाना कभी भी औकात से कम नही आंका जाता था।
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