Sunday, 10 January 2016

बहुत याद आता है प्यारा सा बचपन: भाग 6

ठंडाई तो गर्मियों भर सुबह ही सुबह घुटती थी। घर पर भी यह काम बड़े भइया का था पर हां बादाम छीलना सामान जोड़ना यह हमारा काम था एक दो बादाम मुहँ में जाते भइया निगाह रखते पूरा एक घंटा लगता था। ठंडाई घोटने में पर प्रतिदिन ठंडाई बनती अवश्य थी अब कौन इतनी मेहनत एक पेय पदार्थ को बनाने में लगायेगा प्रतिदिन निवासी में भी नहीं पीसेगा।सिल तो अब बिगत की बात हो गई अब बच्चे सिल बटटा क्या होता है पूछेंगे। सात बजे यमुना जी की आरती देखते नाव ठीक विश्रान्त घाट के यमुना जी के मंदिर के सामने खड़ी कर दी जाती थी। ठीक सात बजे 101 दीपों की आरती का दीपक

महन्त जी जलाते और यमुना मैया की आरती होती हजारों हजार दिये यमुना में झिलमिला जाते। अभूतपूर्व दृश्य होता था गर्मियों में सात बजे आकाश में हलकी ललाई रहती लहरों के दीपकों का अवस आकाश में भी दिखता कारण एक तो आरती के दीपको की लहरों 42 झिलमिल लहर ऊपर से यमुना मैया पर श्रृद्धालुओं के चढ़ाये दीपक दोने और सरकंडे के बने छोटे-छोटे टुकड़ो पर तैरते रहते तैरते दूर तक चलते जाते।


       यमुना पहले इतनी गंदी नहीं थी इतनी क्या पानी एक दम श्रृद्धालु नहाते कपड़े पोंचते पर साबुन लगाना एक दम मना था साबुन से नहाया जाता था यमुना स्नान अगर करना होता तो हम साबुन से घर से मुंह धोकर जाते। माँ पूर कार्तिक माह नहाती साथ ही हर पर्व पर यमुना स्नान करती हम लोग कभी कभी माँ के साथ डुबकी लगाते नहाना कम पानी में खेलना मुख्य उददेश्य होता। 



कभी उन दिनों की याद करती हूं तो हैरानी होती है। कैसे महिलायें हल्की हल्की माज साड़ी पहनकर यमुना में डुबकी लगाती स्त्री पुरूष बच्चे लड़के लड़कियां सब नहाते आड़ महसूस करते कोई छोटे छाड़ होती। वरन् पड़े लाठी लेकर कुछ-कुछ दूर पर पानी में खड़े कछुए भगाते रहते। हामरे पंडा थे गोपी महाराज माँ के पहुँचते ही अपनी लाठी संभाल कर पानी में पंहुच जाते स्नान का छोटी-छोटी तिवारियों में कपडे़ बदल जाते। वहीं गंदगी का नाम नहीं पूजा अर्चना तब भी होती फूल यमुना में तब भी चढ़ाये जाते थे।


       यमुना स्नान का मुख्य पर्व परिवार का भाई दौज होता था तब पूरा परिवार यानि ताऊ, चाचा, और बआओं के परिवार के सभी सदस्य कई नावों में भरकर दूसरी पार पहुंच जाते। सब एक समय पहुँचते। दादी ताऊ चाचा के परिवार स्वामी घाट से बैठते हम सती घाट से स्वामी घाट से नाव चलती और एक कोई भी ताऊ चाचा के बच्चे हमारे घर पर सूचित कर देते हम सब चल पड़ते साथ में डालियों में बाज एक स्थान पर पूरा परिवार एकत्रित होता करीब पाचास साठ लोग हम हो जाते 



भाई बहन भाई बहन के जोड़े बनाकर सब नदी में डुबकी लगाते हम कभी एक भाई का हाथ पकड़ते कभी दूसरे का कभी गोल घेरा बनाकर सभी चाचा ताऊ के बच्चे और हम डुबकियां लगाते डांट-डांट कर पानी में से निकाला जाता। चारों बुआऐं खाना बनाकर लाती और वहीं बैठकर सारा परिवार खाना खाता। विश्रामघाट पर ही यमयमी का मंदिर है संभवतः भाई बहन का मंदिर एक यह है और एक जगन्नाथ पुरी में जगन्नाथ मंदिर है। काले पत्थर से बनी सात फुट की ऊँचाई से यम और इस दिन को यम द्वितीया भी कहते हैं दीपावली के तीसरे दिन यह पर्व मनाया जाता है।


       इस दिन के अलावा पूरे परिवार का पिकनिक जैसा माहौल रहता वह था परिक्रमा का  मथुरा की परिक्रमा सात कोस की है हर अक्षय तीज, अक्ष नवमी निर्जला एकादशी आदि बड़े पर्दो पर मथुरा की परिक्रमा लगाई जाती तब भी पूरा परिवार एक साथ परिक्रमा के लिये निकलता और महाविद्या के मैदानों में सब को एकत्रित होना होता था परिक्रमा  


बिना चावल पहने लगई जाती सब आगे पीछे हो ही जाते थे कोई   धीरे चलता कोई तेज  

अन्य परिक्रमियों के कारण एक साथ वैसे भी नहीं चल पाते और सब अलग अलग हो जाते हम बच्चे कभी रास्ते में पड़ने वाले बेरी के पेड़ो से बेर तोड़ने लगते कभी इमली  कतारें इस चक्कर में परिवारी जनों से बिछुड़ जाते लौट लौट कर पीछे जाते कभी आगे और कोई  कोई मिल ही जाता कितनों फिकरनाट के दिन थे। 


बच्चा घर पहुंच जायेगा। यह विश्वास रहता था। महाविद्या के मैदान में पहुंच  कर  पूरा परिवार कचैड़ी जलेबी का नाश्ता करता और फिर आगे की परिक्रमा प्रारम्भ होती  प्रायः चार बजे से प्रारम्भ हुई परिक्रमा नौ बजे तक पूरी हो जाती परिक्रमा का अंत भी विश्राम घाट परही आकर किया जाता था 

वहीं पर यमुना मैया का आवगमन कर सब अपने अपने घरों को जाते। मां वगैरह के पैर सूज जाते थे पर हम बच्चे  पर भी घमा चौकड़ी मचाते जबकि लौट लौट कर ढूंढने में और बेरी आदि तक पहुंचने में रास्ते में पड़ने वाले हर मंदिर में झोकने में सात कोस नहीं कम से कम पन्द्रह कोस हम चलते थे। कभी कभी एक साथ मथुरा वृदावन दोनो जगह की लगाई जाती यह 13 कोस होती 7 कोस मथुरा और 5 कोस  


वृदावन एक दो बार तीन स्थानों की परिक्रमा एक साथ लगाये उसमें गोवर्धन भी शामिल होता। गोवर्धन् की परिक्रमा दस कोस की थी अब तो गोवर्धन की परिक्रमा लोग   कार से से रिक्शे से लगा लेते है पहले बहंगी से भी केवल लूले लंगड़े लगाते थे   ऊँचाई पर चढ़ना अर्थात् साइकिल पर चढ़कर लगान भी निषिद्ध था वह भी मना किया जाता था तब  गोवर्धन के कुसुम सरोवर में स्नान और खाना किया जाता है

बहुत याद आता है प्यारा सा बचपन: भाग 7

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