हम बच्चे
प्रेस
में
देखते
रहते
कि
नई
किताब
छप
गई
कि
नहीं
पं०
राजेश
दीक्षित
हमारे
तिलस्मी
कथाओं
के
लेखक
रिश्ता
न
होकर
बच्चे
और
पाठक
का
रिश्ता
न
होकर
बच्चे
और
कथा
नायक
नायिका
का
रिश्ता
होता
था।
यह
तो
बाद
में
बड़े
होने
पर
पं०
राजेश
दीक्षित
के
मकान
पर
गये
तब
शांति
सेना
के
कार्यक्रम
में
उनकी
बहू
दीक्षित
से
मिल
तव
पता
चला
उनके
ससुर
लेखक
दो
साल
पूर्व
उनका
निधन
हो
चुका
था।
अपने
पोते
पोतो
के
लिये
अपने
संकलन
में
से
तिलस्मी
रूमाल
किताब
पर
हाथ
गया
तो
उस
पर
लिखा
था
ले
पं०
राजेश
दीक्षित
तब
अपने
चाची
जी
लाला
काशीनाथ
जो
उस
समय
प्रेस
चला
रहे
थे।
पूछा
तब
उन्होंने
बताया
कि
हमारे
प्रेस
बच्चों
की
बहुत
किताब
उनके
द्वारा
लिखी
जाती
थी
पूरी
तिलस्मी
सिरीज
थी
अब
तो
याद
भी
नहीं
उनकी
लिखी
हुई
थी
उनकी
तस्वीर
देखी
तो
प्रेस
के
तावत
पर
बैठे
लेखक
की
तस्वीर
आंखो
के
आगे
आ
गई
तब
ही
बचपन
में
आठ-आठ
बजे
सुबह
पिता
सैर
को
जाते
उनके
साथ
आगे
पीछे
हम
चलते
जाते।
धोती
कुर्ता
टोपी
और
हाथ
में
बेंत
एक
हाथ
से
धोती
को
एक
छोर
उठाये
तेजी
से
बाबू
जी
चलते
उनके
साथ
नदी
बार
करते
कमी
पुल
से
कमी
नाव
से।
सामने
खेतो
में
गरमियों
में
ककड़ी
खरवूजों
तरबूजो
को
बढ़ते
देखते
खेत
वाले
से
लेकर
हांत
न
धोने
की
चिंता
न
पोंछने
की
और
कुछ
बीमारी
कम
से
कम
फल
न
घुलने
की
वजह
से
नहीं
होती
थी।
कैसा
तोड़ते
करोंदे
तेड़ते।
आज
बच्चों
को
यही
नहीं
मालुम
कैसे
होता
क्या
है
यार
फल
कैसा
लगता
बढ़ता
है
हां
किताबी
ज्ञान
है।
माँ
प्रातः
मंदिर
जाती।
यमुना
का
जल
भरती
शिवाजी
की
पूजा
करती।
फिर
हनुमान
जी
के
दर्शन
खुलने
होते
थे।
सीधे
द्वारकाधीश
के
मंदिर
जाती
हमें
दिखाने
मालुम
थे।
पहुंच
जाते
और
भीड़
में
ढूढ
लेते
न
उठाई।
गिरी
का
डर
न
अन्य
डर
आज
के
बच्चे
जरा
सा
बाजार
अकेले
नहीं
निकल
सकते।
उन
दिनों
एक
किताब
आई
थी
जागृत
जिसमे
स्कूल
में
टीचर
को
बच्चे
कछुए
पर
मोमबत्ती
रखकर
कमरे
में
भेजते
है।
और
टीचर
को
डराते
है।
वह
दृश्य
इतना
अच्छा
लगा
कि
कई
सारे
दिये
जलाये
और
जमुना
किनारे
पर
आटें
की
गोली
खाने
एकत्रित
हुए
उनके
कछुओं
की
पीठ
पर
एक-एक
दिया
रख
दिया।
आज
भी
वह
दृश्य
याद
है
हां
हमें
डांट
वहुत
पड़ी
थी
कि
अर
गिर
जाते
जमुना
में
तो
कछुए
ले
जाते
तो
घर
के
पीछे
ही
मदन
मोहन
जी
का
मंदिर
था
उसके
बड़े
से
आंगन
में
दीबार
के
किनारे
पहुंच
पहाड़ी
कछुए
घूमते
रहते
थे।
एक-एक जलती मोमबत्ती उनकी पीठ पर चिपका आये ऊपर टटुर पर बैठी पुजारिन ने देखा न डोटा न डपटा हंसहंस कर लोट पोट होते बोली आने दो तुम्हारी भईया को शिकायत करूंगी।
पर
उन
जलती
मोमबत्तीयों
को
देखने
खुद
पुजारिन
के
बच्चे
भी
आ
जुटे।
वृदावन
में
तीन
दिन
का
चित्र
माह
में
रंग
जी
का
मेला
लगता
जहां
मैदार
था
वहीं
पर
मामा
जी
की
बगीची
जब
रंग
जी
रथ
पर
घूमने
निकलनते
मामाजी
उनकी
आरती
उतारेते
तीन
दिन
हम
बगीची
पर
ही
रहते
थे।
उन
दिनों
जाने
का
साधन
तांगा,
रिक्शा,
ही
होता
था
मथुरा
से
वृदावंन
अधिकतर
तांगो
पर
जाते
थे।
तब
तक
स्कूल
जाने
लगी
थी
नया
खेल
सीखा
था।
छेददार
पैसा
हथैली
पर
नचाना।
घोड़े
का
बाल
दिखाई
नहीं
देता
था।
उससे
पैसा
बांधकर
नचाते
थे।
अब
बाल
कहां
से
आये।
तांगे
में
सब
रंग
जी
के
मेले
के
लिये
चले
पूरा
परिवार
बैठा
था
मैं
क्योंकि
छोटी
थी
आगे
बैठी
थी
चलते
में
घोड़े
के
पूछ
लहरा
लहरा
कर
बार-बार
आ
रही
थी
मेंरी
ओखों
के
सामने
हथेली
पर
पैसा
नाचने
लगा
मैं
मौका
देखने
लगी
औश्र
एक
बार
जब
पूंछ
आई
फिर
से
बाल
उखाड़
लिया
पर
बाल
एक
नहीं
तीन
चार
हाथ
आये
थे
घोड़ा
बिलबिला
गया।
वह
होंसता
भागा
कोचवान
हैरान
उसे
क्या
हुआ
और
में
बिलकुल
दक
साध
कर
बैठ
गई
बालों
को
लपटें
मुठठी
में
कर
लिया
हटो
बच्चो
करता
वृदावन
की
सड़क
पर
तांगा
भगा
रहा
था।
कोचवान
पुचकार
रहा
था।
रास
खींच
रहा
था।
सबके
चेहरे
पर
हदाई
उड़ी
हुई
थी।
माँ
वगेरह
ने
कस
पर
तांगे
को
पकड़
लिया।
शायद
एक
स्वर
में
सब
हनुमान
जी
को
भक्तों
की
सुनने
का
समय
मिल
गया
और
घोड़ा
कुछ
धीमा
हुआ
फिर
अपनी
चाल
चलता
मंजिल
पर
पहुँच
गया।
तांगे
पर
से
उतर
कर
सबकी
जान
में
जान
आई
रिश्वत
तो
हनुमान
जी
को
फिर
माँ
देकर
दूसरे
दिन
आई
ही।
पर
बाद
में
सबको
बताया
साथ
ही
कहा
कुछ
भी
हो
क्या
सुरे
थी।
बचपन
की
अनगिनत
स्मृतियाँ
हैं
बचपन
जो
भूले
नहीं
भुलाया
जा
पाता
है।
बहुत याद आता है प्यारा सा बचपन: भाग 3
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