30 अगस्त,
मैं
उसे
कैसे
मारूँ
क्योंकि
मैं
उसे
पकड़
नहीं
सकता,
जहर
दे
दॅूं
लेकिन
वह
पानी
में
मिलाते
देख
लेगा
और
तब...और
क्या
हमारा
जहर
उस
अगोचर
जिस्म
पर
असर
करेगा
नहीं
नहीं
नहीं
शक
है
,तब
?
31
अगस्त
,मैंने
रोन
से
एक
लुहार
लोहे
का
दरवाजा
बनवाने
के
लिये
भेजा,
जैसा
मेरे
पेरिस
के
होटल
में
चोर
उच्चक्को
के
डर
से
लगवाया
है
मुझे
लोग
डरपोक
कहेंगे
पर
कहने
दो।
10
सितम्बर,
रोन,
होटल
कांटीनेटल,
यह
हो
गया
लेकिन
क्या
वह
मर
गया
मेरा
दिमाग
परेशान
हो
गया
है
जो
कुछ
देखा,
अच्छा तब कल लोहार ने लोहे का शटर और दरवाजा लगा दिया, मैंने सब कुछ आधी रात तक खुला छोड़ दिया यद्यपि ठंड हो रही थी।
एकाएक
मुझे
लगा
वह
है
,बेहद
खुशी
पागलपन
की
हद
तक
खुशी
हो
रही
थी।
मैं
धीरे
से
उठा
और
कुछ
देर
ऊपर
नीचे
करता
रहा
जिससे
उसे
कोई
शक
न
हो
और
फिर
तेजी
से
मैंने
शटर
बंद
कर
दिया,
दरवाजे
तक
जाकर
ताला
लगाया
और
चाबी
अपनी
जेब
में
रख
ली।
एकाएक
मुझे
लगा
वह
बेचैन
मेरे
चारो
ओर
घूम
रहा
है
,अब
वह
डरा
हुआ
मुझसे
कह
रहा
है
कि
मुझे
बाहर
जाने
दे
मैंने
पीठ
दरवाजे
की
ओर
करके
इतना
खोला
कि
मैं
ही
बाहर
निकल
सकूं
मैं
इतना
लंबा
हूँ
कि
चैखट
तक
मेरी
लंबाई
है।
निश्चय
ही
वह
बच
नहीं
पाया
होगा
और
मैंने
उसे
अकेला
बंद
कर
दिया
।
कितनी
खुशी
मिल
रही
थी
फिर
मैं
नीचे
उतरा
अपने
ड्राइंगरूम
में
गया
जो
मेरे
सोने
के
कमरे
के
नीचे
था।
मैंने दो लैम्प लिये उनका सारा तेल कालीन पर और सोफे पर फैला दिया सब जगह और उसमें आग लगा कर मैं बाहर निकला और ताला लगा दिया। मैं बाहर बगीचों में छिप गया, झाडि़यों के झुंड में । बहुत लम्बा समय लग रहा था। चारों ओर अंधेरा था, एकदम शांत बिल्कुल हवा नहीं न तारे, हाँ बस बादल भारी बादल, जो मेरे मन को भी दबा रहे थे।
मैंने दो लैम्प लिये उनका सारा तेल कालीन पर और सोफे पर फैला दिया सब जगह और उसमें आग लगा कर मैं बाहर निकला और ताला लगा दिया। मैं बाहर बगीचों में छिप गया, झाडि़यों के झुंड में । बहुत लम्बा समय लग रहा था। चारों ओर अंधेरा था, एकदम शांत बिल्कुल हवा नहीं न तारे, हाँ बस बादल भारी बादल, जो मेरे मन को भी दबा रहे थे।
मैंने
अपने
घर
को
देखा,
इंतजार
करने
लगा
कितनी
देर
लग
रही
है
क्या
आग
बुझ
गई
है,
तभी
निचली
खिड़की
पर
लपट
दिखाई
दी,
एक
लम्बी
लाल
लपट
सफेद
दीवार
पर
दिखाई
दी
और
छत
तक
बढ़
चली
रोशनी
पेड़ों
पर
पड़
रही
थी,
डालियाँ
पत्तियां
एक
डर
की
कपकंपी
उन्हें
भी
हो
रही
थी,
चिडि़या
जाग
गई
एक
कुत्ता
भौंकने
लगा
मुझे लगा जैसे दिन निकल रहा है ,तभी दो अन्य खिड़कियों से लपटें निकलने लगीं। मैने देखा मेरे घर का निचला हिस्सा लाल तपता भट्टी हो गया था लेकिन एक चीख डरावनी तीखी दिल-दहलाने वाली चीख । एक औरत के रोने की आवाज सन्नाटे में गूंज गई । दो दुछत्ती की खिड़कियां खुलीं ओह मैं नौकरों को तो भूल ही गया मैंने उनके डरे हुए चेहरे देखे ,वे हथियार लहरा रहे थे।
मुझे लगा जैसे दिन निकल रहा है ,तभी दो अन्य खिड़कियों से लपटें निकलने लगीं। मैने देखा मेरे घर का निचला हिस्सा लाल तपता भट्टी हो गया था लेकिन एक चीख डरावनी तीखी दिल-दहलाने वाली चीख । एक औरत के रोने की आवाज सन्नाटे में गूंज गई । दो दुछत्ती की खिड़कियां खुलीं ओह मैं नौकरों को तो भूल ही गया मैंने उनके डरे हुए चेहरे देखे ,वे हथियार लहरा रहे थे।
फिर डरा हुआ मैं गांव की ओर भागा, ‘बचाओ बचाओ! आग! आग! मै कुछ लोगों से मिला जो वहीं आ रहे थे मैं उनके साथ लौटा।
तब
तक
घर
एक
जलती
चिता
में
बदल
चुका
था
एक
विशाल
चिता,
जिसने
पूरे
गांव
को
रोशन
कर
दिया
एक
चिता
जिसमें
आदमी
जल
रहे
थे
और
वह
भी
जल
रहा
था।
वह
वह
मेरा
कैदी
नया
मालिक,
होरला।
एकाएक
सारी
छत
दीवारों
के
बीच
गिर
गई
ओर
एक
आग
का
ज्वालामुखी
आकाश
की
ओर
उढ़
गया
यद्यपि
सभी
खिड़कियाँ चूल्हे
पर
खुलती
थी,
आग
की
लहर
झपटी
लंकिन
मैं
जहाँ
तक
समझता
हूँ
वह
उस
भट्टी
में
था,
मरा
हुआ।
मर
गया
?
शायद
उसका
शरीर,
क्या
उसका
शरीर
नहीं
था,
पारदर्शी,
अनश्वर
ऐसे
जैसे
हमारा
नष्ट
हो
जाता
है।
अगर
वह
नही
मरा
होगा,
हो
सकता
है
केवल
समय
उन
अदृश्य
और
अव्यक्त
लोगों
को
नष्ट
करता
हो
क्यों
ये
पारदर्शी
अचिन्हित
शरीर
एक
जीवात्मा
बन
जाती
है
अगर
वह
भी
बीमारी
से
दुर्बलताओ
से
अकाल
मृत्यु
से
डरती
है।
अकाल
मृत्यु,
मनुष्य
का
भय
यहीं
से
प्रारम्भ
होता
है
बाद
में
मनुष्य
होरला
,उसके
बाद
वह
रोज
मरता
है
हर
घंटे
हर
पल
किसी
भी
दुर्घटना
से,
उसके
बाद
वह
मनुष्य
आता
है
जो
अपनी
मौत
मरता
है
क्योंकि
उसने
अपने
पूर्ण
जीवन
को
जिया
है।
नहीं,
नहीं
बिनाशक
वह
मरा
नहीं
है
तब
तब
समझता
हूँ
मुझे
अपने
को
स्वयं
को
मार
लेना
चाहिये।
होरलाअनुवाद डा॰शशि गोयलसप्तऋषि अपार्टमेंटजी -9 ब्लाक -3,सैक्टर 16 बीभारतीय महिला बैंक के पास
आवास विकास योजना सिकन्दरा आगरा -282010
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