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यहां प्राचीन काल से आजतक सम्बन्धियों और मित्रों की आत्मा दूसरी दुनिया में शांति से रहेंगे और लौटकर रिश्तेदारों को परेशानी में न डालें इसके लिये अनेकों संस्कार किये जाते हैं। इन संस्कारों का मुख्य उद्देश्य होता है कि मृतक प्रेत चुड़ैल आदि योनि में जाने से बच सके। एकाएक मृत्यु प्राप्त व्यक्ति खतरनाक प्रेत बनते हैं उनकी इच्छाऐं अतृप्त रह जाती हैं। ईष्र्यावश वे इस संसर में आकर अनिष्ट करती हैं। उनके संस्कार के समय तांत्रिको ंसे तंत्र-मंत्र की सहायता ली जाती हैं।
सीलोन रूस फिलीपाइन्स दक्षिणी अफ्रीका आदि देशों की कुछ जातियां तो घायल या गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति को घर से बाहर निकाल देते हैं। क्योंकि उनके अनुसार जिस स्थान पर व्यक्ति की मृत्यु होती है वहां बार-बार आते हैं।
मृतक आकर घर अपवित्र न करे इसलिये कहीं-कहीं घर से बाहर तो कहीं गांव से ही बाहर निकाल देते हैं। कुछ स्थान पर मरने वाले को पलंग पर से उतार कर पृथ्वी पर या कुश की चटाई पर लिटा दिया जाता है। जिससे कि शीघ्र पाताल में अपने साथियों से मिल सके। यह प्रथा हिन्दू धर्म में है।
साइबेरिया के याकूत जाति के लोग तो मृतक से इतना डरते हैं कि वृद्ध या गभीर रूप से बीमार व्यक्ति का मृतक भोज उसके जीवन काल में ही कर दिया जाता है। उसे सबसे ऊँचे स्थान पर बिठाकर सबसे अच्छा भोजन कराया जाता है फिर जंगल में ले जाकर जीवित ही दफन कर दिया जाता है। यहां तक कि दूसरी दुनियां में जाने के लिये घोड़ा सवारी के रूप में दफनाया जाता है।
ज्यूइश लोग लाश छूने वाले को सात दिन तक अस्पृश्य मानते हैं सातवें दिन उसको नहलवाया जाता है। बिना जुए पर जुते जवान बैल का रक्त चारो और छिड़का जाता है फिर बैल का सब कुछ जला दिया जाता है साथ ही पवित्र लकड़ियों का बुरादा अग्नि में डला जाता है। बची हुई राख को झरने के पानी में मिलाकर जिसने लाश न छुई हो ऐसा व्यक्ति लाश छूने वाले के ऊपर डालता है और घर को उसी पानी से पवित्र करता है।
मृतक के संस्कार की विधि अलग-अलग ढंग से अपनाई जाती है। ईजिप्ट केनेरी द्वीप आदि में माना जाता है कि मृतक की आत्मा निश्चित समय के बाद लौटकर शरीर में प्रवेश करेगी इसके लिये शरीर पर तेल जड़ी बूटी का लेप लगाकर सुरक्षित रखा जाता है और समस्त मृतकोपयोगी सामान उसके साथ दफनाया जाता है।
कांगोे में शरीर को कुछ ही समय तक ही सुरक्षित किया जाता है उस पर विभिन्न चित्रकारी की जाती है। इसके लिये वहां लाशों के चित्रकार अलग से होते हैं। जो अपनी कला से वृद्ध वयक्ति के चेहरे को भी युवक की तरह चित्रकारी करते हैं और उसकी कला को देखने सब लोग आकर मृतक को देखते हैं।
प्राचीन काल में यहूदी शीघ्रतातिशीघ्र मृतक की आत्मा प्रेत बनने से बचने के लिये घर को ही जला देते थे। पुरातन समय में तो यहूदी यहां तक करते थे कि मृतक के घर को छोड़कर बाकी घर गिरा देते थे और सब अन्य स्थान पर बस जाते थे। जिससे मृतक का प्रेत अकेला ही भटकता रहे। अब भी इस जाति के लोग लाश को छत से खिड़की से प्रेतको बहकाने के लिये ले जाते हैं। चीन मे दफनाने के बाद आतिशबाजी रास्ते में छोड़ते हैं जिससे प्रेत वापिस न लौट सके।
शरीर किस प्रकार नष्ट हो इसके लिये जलाया जाना शीघ्रतातिशीघ्र उपाय है लेकिन इसके अलावा अन्य उपाय भी प्रयोग में लाये जाते हैं। एकाकी झोपड़ी में रखना नाव मे रखकर बहाना, कब्र मकबरा गुफा आदि उपाय प्रयोग में लाये जाते हैं। भारत में प्रयोग मंे लाये जाने वाले उपाय जलाना और दफनाना दोनों ही पवित्र प्रदूषण मुक्त हैं क्योंकि लाश को गिद्ध, चील आदि के लिये छोड़ना भारी प्रदूषण फैलाना है। बहुत सी जातियों में एक निश्चित स्थान पर मृतक को छोड़ आते हैं। गिद्ध चील नोंच नोंच कर मांस खा जाते हैं साल में एक या दो बार सारी अस्थियां किसी सूखे कुऐं में फेंक दी जाती हैं जहां वो पंचतत्व में विलीन हो जाती है।
यूरोप मंे ताम्र युग मे और कुछ उत्तरी अमरीका के रैड इंडियन आदि में कुछ इससे मिलता जुलता उपाय अपनाया जाता है। खुरचकर या दफनाकर मृतक के शरीर पर से मांस हटा लिया जाता है। हड्डियों को एक खाल मे बांधकर बर्तन मे रखकर गहरी मिट्टी मे दफना दिया जाता है।
बहुत सी जातियां मृतकों को बड़े बड़े मर्तबानों में रखकर दफनाते हैं। गुआना के आदिवासी मृतक को नाव में या पेड़ के खोखल में रख देते हैं
किसी को जिन्दा गाड़ना प्राचीन काल में सजा दी जाती थी। कहीं दीवार में चिनवा दिया जाता था। पेरू में विवाहित चरित्रहीन स्त्रियों को जीवित गाड़ दिया जाता था। मैक्सिको और मध्य अमेरिका मे प्रसिद्ध व्यक्तियों की पत्नियां यहां तक की नौकर भी दफना दिये जाते हैं। 15 वीं शताब्दी में जर्मनी में यह आम था। भारत में आज तक राजस्थान में अधिकतर पति के साथ स्त्री जला दी जाती है।
चीन और भारत में मृतक के बिस्तर दे दिये जाते हैं। चीन मंे मृत्यु के बाद परिवार एक लालटेन देवदार की लकड़ी की कुर्सी रूपया, खाना लेकर देवता के मंदिर में जाते हैं। तीन दिन के संस्कार पिंडदान आदि करते हैं। उनका विश्वास है इससे मृतक की आत्मा को शांति मिल जाती है और समझा जाता है। देवता, स्वर्ण के देवता से मृतक का परिचय करा उसे उचित मार्ग दिखायेगे और मंदिर में दान दक्षिणा चढ़ाई जाती है। फिर मृतक को विधिवत दफनाये जाने का दिन चुना जाता है। जोर-जोर से चीखते मृतक को दफनाते हैं।
भारत में हिंदुओं मंे अकालमृत्यु से मरने वाले को गंगा जमुना में प्रवाहित कर दिया जाता है जैसे सर्प का काटा, चेचेक से मृत आदि।
असम की एक जाति खामती में उनके प्रसिद्ध पर्व साडकेन के दौरान मृत व्यक्ति को शीघ्र ही श्मशन ले जाते हैं। सात दिन तक अग्नि नहीं जलाते और शव को तीन दिन तक वृक्ष पर लटकाये रखते हैं। क्योंकि साडकेन के अवसर पर गडहा नहीं खोदा जाता।
पंच तत्व से निर्मित शरीर को पंचतत्व में विलीन करना है न मुश्किल। कितना डर लगने लगता है अपनों को अपनों से।
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